Tuesday, 31 December 2019

OM Chanting - 108 Times (Music for Yoga & Mediation)

PUBG कौन खेल रहा है ? PUBG Mobile Puzzle | Best Riddles in Hindi | Think...



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पजल पहेली

Thursday, 26 December 2019

कृष्ण मित्र अर्जुन और रावण पुत्र इंद्रजीत के बीच युद्ध में कौन विजयी होत...



अर्जुन और इंद्रजीत
महाभारत और रामायण सिर्फ एक कथा नहीं है, ना ही वह एक ग्रन्थ है। यह
हमारा वास्तविक जीवन है जो हर युग में
, हर क्षेत्र में अपने आप को दोहराता है। कर्म करना हर जीव का धर्म है। भूल एक परिणाम है पाप नहीं।
लेकिन भूल को बार बार दोहराना और उस पर पश्चतवा न करना पाप अवश्य है। लेकिन इस पाप
को सुधारने के लिए ईश्वर स्वयं हमारे समक्ष कई रूपों में आ जाते हैं। उन्हें
पहचाना भी हमारा कर्म हैं।
वे हमें हमारी भूल सुधारने के कई मार्ग सामने रखते हैं। कौनसा मार्ग चुनना
हमारा कर्म है। चाहे आस्तिक हो या नास्तिक
, एक न एक दिन हमें हमारे इस शरीर को त्यागना ही है। हमारे कर्म हमारे शरीर
त्यागने के मार्ग तय करेगा।
दोस्तों
हमने अपने कई विडियो मे रामायण और महाभारत के पात्रो की तुलना की है आज उसी कर्म
को आगे बढ़ाते हुए हम एक बार फिर इन दोनों ग्रंथो के दो महान पात्रो की तुलना
करेंगे। पहला नाम है महाभारत का महान धनुर्धर अर्जुन और दूसरा नाम है रावण का
महाप्रतापी पुत्र इंद्रजीत। आइये दोनों योद्धाओं की काबलियत पर बात करते हैं और ये
समझने का प्रयास करते हैं की कौन किससे श्रेष्ठ है।
अर्जुन अपने समय के सबसे शक्तिशाली धनुर्धर योद्धा थे। वे सव्यसाची
थे
, अर्थात दोनो
हाथों से समान बाण चला सकते थे
, दो मील दूर तक वार कर सकते थे, शब्दभेदी बाण चला
सकते थे
, अंधेरे में युद्ध
कर सकते थे
, निद्रा पर विजय
प्राप्त कर देर तक युद्ध कर सकते थे
, अपनी एकाग्रता व अचूक निशाने के लिए प्रसिद्ध थे। उनके बाजु
इतने शक्तिशाली थे की सामान्य धनुष आसानी से टूट जाते थे। उनका दिव्य धनुष गांडीव
इतना भारी था कि उसको उठाना या उसपर प्रत्यंचा चढ़ाना सामान्य बात नहीं थी
, और उसपर
प्रत्यंचा अर्जुन के अलावा केवल श्रीकृष्ण व भीम ही चढ़ा सकते थे।
मेघनाद पितृभक्त पुत्र था।उसे यह पता चलने पर की राम
स्वयं भगवान है फिर भी उसने पिता का साथ नही छोड़ा। मेघनाद की भी पितृभक्ति प्रभु
राम के समान अतुलनीय है। जब उसकी मां मन्दोदरी ने उसे यह कहा कि इंसान मुक्ति की
तरफ अकेले जाता है तब उसने कहा कि पिता को ठुकरा कर अगर मुझे स्वर्ग भी मिले तो
मैं ठुकरा दूँगा।
अपने पिता की तरह
यह भी स्वर्ग विजयी था। इंद्र को परास्त करने के कारण ही ब्रह्मा जी ने इसका नाम
इंद्रजीत रखा था। आदिकाल से अब तक यही एक मात्र ऐसा योद्धा है जिसे अतिमहारथी की
उपाधि दी गई है। इसका नाम रामायण
में इसलिए लिया
जाता है क्योंकि इसने राम- रावण युद्ध में एहम भूमिका निभाई थी। इसका नाम उन
योद्धाओं में लिया जाता है जो की ब्रह्माण्ड अस्त्र
, वैष्णव अस्त्र
तथा पाशुपात अस्त्र के धारक कहे जाते हैं। इसने अपने गुरु शुक्राचार्य के
सान्निध्य में रहकर तथा त्रिदेवों द्वारा कई अस्त्र- शस्त्र एकत्र किए। स्वर्ग में
देवताओं को हरा कर उनके अस्त्र शस्त्र पर भी अधिकार कर लिया।
आइये दोस्तों दोनों ही
योद्धाओं की विशेषताओं पर नज़र डालते हैं और ये समझने का प्रयास करते हैं की कौन
अधिक श्रेष्ठ था।
शिक्षा के आधार पर देखा जाए
तो दोनों को महान गुरुओं का सनीध्य मिला अर्जुन के गुरु थे गुरु द्रोण और इंद्रजीत
के गुरु थे गुरु शुक्राचार्य दोनों ही योद्धा शिक्षा के आधार पीआर समान ही नज़र आ
रहे हैं।
अस्त्र शस्त्र
अर्जुन ने हिमालय पे तपस्या
कर के भगवान शिव से पासूप्तास्त्र प्राप्त कर लिया था। अग्नि देव से उन्होने
अगन्यासत्र प्राप्त किए थे। इंद्रा देव ने भी अनेकों दिव्यास्त्र अर्जुन को प्रदान
किए थे। अर्जुन के पास अक्षय तरकश और गाँडीव धनुष भी थे। वरुण देव ने उन्हे
नंदीघोष नामक विशाल रथ दिया था। अर्जुन के पास ब्रह्मास्त्र और ब्रहमशिरा अस्त्र
भी था।
परंतु इंद्रजीत के पास नारायण
अस्त्र ब्रह्मास्त्र और पसुप्तास्त्र था इन तीनों अस्त्र का एक साथ एक वायक्ति के
पास होना ही उस को अस्त्रों के मापदंड पर श्रेष्ठ बनाती है।
हम सब को पता है की इंद्रजीत
एक मायावी योद्धा था उसने अपनी माया से अनेकों अनेक योद्धाओं को परास्त किया था
इसी माया के बल पर उसने स्वर्ग पर आक्रमण किया और इंद्रा तक को परास्त कर
दिया  था परंतु अर्जुन के
paas ऐसे अनेक अस्त्र थे जिससे वो किसी भी
माया को खतम कर सकता था। महाभारत युद्ध मे अर्जुन ने निवटकवच
, चित्रा सेन जिसे मायावी असुरों को परास्त कर ये बात साबित केआर दी थी की
वो किसे से कम नहीं है
, बात इंद्रा की हो तो अर्जुन ने
इंद्रप्रस्थ स्थापना और खंडाव दहन के समय इंद्रा तक को परास्त कर दिया था।
अर्जुन और इंद्रजीत के विषय
मे आपके विचार अपने कमेंट बॉक्स मे लिखें
कृष्ण मित्र अर्जुन और रावण पुत्र इंद्रजीत के बीच युद्ध में
कौन विजयी होता
??? Kaal
Chakra

Sunday, 15 December 2019

pubg मे कातिल कौन है ? जासूसी पहेलियाँ । Think Logical

अर्जुन के महाविनाशकारी अस्त्र शस्त्र || Kaal Chakra



अर्जुन के महाविनाशकारी
अस्त्र शस्त्र
वेदों में 18 युद्ध कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। प्राचीन
वैदिक काल में सभी तरह के अस्त्र-शस्त्र थे। इसका उल्लेख वेदों में मिलता है।
हालांकि ये किस तकनीक से संचालित होते थे
, यह शोध का विषय हो सकता है, लेकिन यह तो तय था कि वे सभी दिव्यास्त्र
मंत्रों की शक्ति से ही संचालित होते थे।
जब हम बात
महाभारत की
करेंगे तो हम ये जान
लेते हैं कि महाभारत में सबसे वीर और भगवान के निकटतम योद्धा की बात आती है तो
सबसे पहले नाम अर्जुन की ही आता है। अर्जुन की शक्ति का कई बार वर्णन हमें महाभारत
में मिलता है जिन्होंने एक बार विराट के युद्ध में लगभग सभी कौरवों (भीष्ण
,कर्ण और
द्रोणाचार्य भी) को अकेले ही हरा दिया था। महाभारत के अंतिम निर्णायक युद्ध में भी
अर्जुन ने उन योद्धाओं
का वध किया जो कि उस
समय समस्त संसार में शक्तिशाली थे।
आइये जानते हैं अर्जुन के पास ऐसे कौन से अस्त्र थे जिससे
उन्होने इन महान हस्तियों को परास्त किया था। 
1.    इंद्र अस्त्र इन्द्र देवता
द्वारा संचालित किया जाता है। इसका एक बार किया गया प्रयोग आसमान से बाणों की
वर्षा कर देता है।
2.    आग्नेय अस्त्र अग्नि देव द्वारा संचालित इस अस्त्र का प्रयोग एक ही बार
में हर जगह आग को फैलाने के लिए किया जाता है। इस अस्त्र का सामना सिर्फ वरुण यानि
जल अस्त्र ही कर सकता है।
3.    वरुण अस्त्र
यह अस्त्र वरुण यानि जल देवता द्वारा संचालित
किया जाता है। इसका प्रयोग करने से एक ही बार में बड़ी मात्रा में पानी को प्रवाहित
किया जा सकता है। मुख्यत: इस अस्त्र का प्रयोग आग्नेय अस्त्र के प्रभाव को रोकने
के लिए किया जाता है।
4.    वायु अस्त्र
पवन देव द्वारा संचालित इस अस्त्र का प्रयोग
करने से वायु तेज हवा में बहने लगती थी। वायु की गति इतनी तेज होती थी कि दुश्मन
तक कांप उठते थे।
5.    सम्मोहन अस्त्र
इसका प्रयोग महायोद्धाओं तक को यह भूलने के लिए
मजबूर कर सकता था कि वह किससे और किस उद्देश्य के लिए लड़ रहे हैं। जो इस अस्त्र को
चलाता उसी के मोहपाश में बंधकर सब रह जाते थे।
6.    अर्जुन के पास ब्रह्मास्त्र भी था
यह अस्त्र सबसे अधिक खतरनाक था। यह हर प्रकार
के अस्त्रों के प्रभाव को काट सकता था। इसके संचालक स्वयं ब्रह्मा थे। इस अस्त्र
का काट किसी के भी पास नहीं था
7.    और कृष्ण के आदेश पर अर्जुन ने भगवान शिव से पसुपटसत्र भी
प्राप्त कर लिए थे।


Friday, 13 December 2019

इंस्पेक्टर दबंग की जासूसी पहेलियाँ। कातिल कौन है ? Think Logical

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Wednesday, 4 December 2019

भगवान शिव और गणेश जी के बीच महाप्रलयंकारी युद्ध...



शिव और गणेश युद्ध
हिन्दू धर्म के अनुसार 35 करोड़ देवी
देवताओं में गणपति का स्थान सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। वैसे तो सभी देवी
देवता एक समान
हैं किन्तु ब्रह्मा और विष्णु जी द्वारा दिए गए सर्वप्रथम पूजनीय देव के वरदान के
कारण शिवपुत्र को सर्वश्रेष्ठ देव स्वरुप में पूजा जाता है। उनकी पूजा आज भी हर घर
, हर मंदिर, किसी भी शुभ
कार्य को करने से पहले की जाती है । भगवान गणेश हर रूप में पूजनीय हैं
, उन्हें एकदंत, सिद्धिविनायक, अष्टविनायक के
रूप में भी पूजा जाता है।
दोस्तों आज
हम इस विडियो मे भगवान गणेश से जुड़ी एक रोचक कहानी सुनेंगे। क्या हुआ जब भगवान
गणेश का सामना स्वयं भगवान शिव से हो गया था। 
एक समय की बात है। मां पार्वती स्नान के लिए जा रही थीं, तब अपनी विजया आदि
सखियों के कहने पर एक पुतले का निर्माण किया। उस पुतले में माता ने पंचवायु तथा
प्राण आदि डाल कर उसमें परम तेजस्वी ओज का आवाहन किया। वह पुतला सुन्दर बाल पुरुष
में परिवर्तित हो गया। मां पार्वती
ने उस बालक को
सुन्दर मनोहारी वस्त्र आभूषण आयुध आदि प्रदान किया। माता ने उस पुतले से कहा
, तुम मेरे पुत्र
हो और आज से तुम्हारा नाम गणेश होगा। इस तरह दोनों के बीच एक प्रगाढ़ संबंध का भी
अविर्भाव हुआ
ठीक उसी समय पार्वती ने अपने पुत्र गणेश से कहा, जब तक मैं इस
गुफा से बाहर न निकलूं
, तब तक तुम मेरी
रक्षा करना और द्वारपाल का कर्तव्‍य निभाना। पार्वती ने अपने पुत्र गणेश को यह भी
कहा कि गुफा में मेरी अनुमति के बिना कोई भी प्रवेश न कर सके
, इसे एक तरह से
मेरा आदेश ही मानना।  पुत्र गणेश को यह
बोलकर मां गुफा में प्रवेश कर गईं और इस प्रकार अग्रगण्य गणेश जी पहरा देने लगे।
कुछ समय के बाद माता स्नान करने लगी, तभी शिव जी आ गए।
भगवन गणेश शिव जी से अनभिज्ञ थे
, जैसे ही बाबा भोलेनाथ प्रवेश करने लगे तभी गणेश जी ने कहा
ठहरो तुम मेरी माता की आज्ञा बिना प्रवेश नहीं कर सकते हो। शंकर जी ने कहा मूर्ख
बालक तू मुझे नहीं जानता
,
तू मुझे रोकेगा।
मैं पार्वती का पति शिव हूं
, जिनके तुम पहरेदार हो। चलो यहां से हटो हमें जाने दो। जब
शिव जी ने इतना कहा तो गणेश जी कहने लगे
, मैं नहीं जानता आप कौन हो?  लेकिन मैं तो बस
इतना जानता हूं की माता की आज्ञा के बिना मैं आपको जाने नहीं दूंगा
, आप चाहे जो भी
हों। तब शिव जी ने अपने गणो नंदी भृंगी-श्रृंगी वीरभद्र आदि सब को आदेश दिया कि
, जाओ तुम इस बालक
को समझाओ।
एक-एक कर सभी गणो ने बालक गणेश को शंकर जी के बारे बताया और
उनकी महिमा बनाई। सभी गणों की बात समझने के बाद भी गणेश जी ने कहा की मैं माता का
पुत्र हूं और माता के आदेश का पालन करना मेरा कर्तव्‍य है और मैं उनकी आज्ञा का
उल्‍लंघन नहीं होने दूंगा। बालक गणेश के हठ को देखकर सभी शिवगण शिव जी के पास आए
और सम्पूर्ण वृतान्त कह सुनाया।
अपने गणों की बात नहीं सुनकर भगवन शिव को क्रोध आ गया।
क्रोधित शिवजी ने आदेश दिया कि जाओ
, उस मूर्ख बालक को सबक सिखाओ। समस्त शिव गण अस्त्र-शस्त्र से
सुसज्जित होकर युद्ध करने लगे। भयंकर युद्ध हुआ। शिव गणों की एक भी न चली।  भगवन गणेश जी के सामने शिव गण नहीं टिक सके। यही
नहीं स्‍वयं कार्तिकेय भी युद्ध करने लगे फिर भी वे बालक गणेश को नहीं परास्त कर
सके
, तभी भगवन शिव
क्रोधित होकर गणेश जी पर त्रिशूल से प्रहार किया और गणेश जी का सिर काटकर गिरा
दिया।
बालक गणेश का सिर पृथ्वी पर गिर गया। उधर जैसे
ही मां पार्वती को पता चला कि उनका पुत्र गणेश मारा गया है
, तो माता भयंकर
क्रोध से भर गईं। क्रोध में डूबी माता के शरीर से कई शक्तियों का प्राकट्य हुआ और
उन शक्तियों ने संसार में प्रलय मचाना शुरू कर दिया। पूरा ब्रम्हांड और जगत थर्रा
उठा। सभी ऋषिगण और देवगण त्राहि माम् माम् की आवाज के साथ मिलकर माता का स्‍तुतिगान
करने लगे।
सभी की स्‍तुति सुन माता का क्रोध कुछ कम हुआ और माता ने
कहा कि जब तक मेरा पुत्र जीवित नहीं होगा तब तक मेरी शक्तियां इसी प्रकार उत्पात
मचाती रहेंगी।
माता की यह बात सुनकर सभी ब्रम्हादि देवताओं ने शिव जी से
आग्रह किया की प्रभु आप गणपति को शीघ्र नवजीवन प्रदान करें नहीं तो सृस्टि का
कार्य रुक जाएगा। तब भगवन  भोलेनाथ ने
उत्तर दिशा में अपने त्रिशूल से प्रहार किया
, जहां पर पूर्व
श्रापित एक गजराज बैठे थे।
त्रिशुल गजराज का
सिर काटकर ले आया और उसके सिर को बालक गणेश के धड़ में जोड़ा गया। और बालक को गणेश
को जीवनदान मिलने के बाद शंकर जी ने पुत्र गणेश को आशीर्वाद दिया कि तुमसे पूरे
संसार में शुभता का वास होगा। तुम देवों में सबसे पहले प्रथम पूज्‍य होंगे
, और तुम्‍हारे
बिना कोई भी शुभ कार्य नहीं होगा। तुम बुद्धि के अधिपति देवता होगे और अनंतकाल तक
पृथ्‍वी पर पूजे जाओगे।

Friday, 22 November 2019

वैष्णव सुदर्शन चक्र या शिव का त्रिशूल कौन सा अस्त्र है ज्यादा श्रेष्ठ???...



सुदर्शन चक्र vs त्रिशूल
वैदिक
समय से ही विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य
रहे हैं। हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु
परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को
विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना
जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है
, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः
विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है।
न्याय को प्रश्रय
, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को
परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार
ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं।
दोस्तों
भगवान विष्णु और भगवान शिव दोनों के पास दो महान अस्त्रों का जिक्र आता है।
सुदर्शन चक्र और त्रिशूल। आज इस विडियो हम इनहि दो अस्त्रों की तुलना करेंगे और ये
जानने का प्रयास करेंगे की कौन किससे बेहतर है।
ये काल चक्र है
भगवान
विष्णु जगन्नाथ के पास जाकर एक हजार वर्ष तक पैर के अंगूठे पर खड़े रह कर परब्रह्म
की उपासना करते रहे। भगवान विष्णु की इस प्रकार कठोर साधना से प्रसन्न होकर भगवान
शिव ने उन्हें
'सुदर्शन चक्र' प्रदान किया। उन्होंने सुदर्शन चक्र को
देते हुए भगवान विष्णु से कहा- "देवेश! यह सुदर्शन नाम का श्रेष्ठ आयुध बारह
अरों
, छह नाभियों एवं दो युगों से युक्त, तीव्र गतिशील और समस्त आयुधों का नाश
करने वाला है। सज्जनों की रक्षा करने के लिए इसके अरों में देवता
, राशियाँ, ऋतुएँ, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण, शचीपति इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति, , तप तथा चैत्र से लेकर फाल्गुन तक के
बारह महीने प्रतिष्ठित हैं। आप इसे लेकर निर्भीक होकर शत्रुओं का संहार करें। तब
भगवान विष्णु ने उस सुदर्शन चक्र से असुर श्रीदामा को युद्ध में परास्त करके मार
डाला। इस आयुध की खासियत थी कि इसे तेजी से हाथ से घुमाने पर यह हवा के प्रवाह से
मिल कर प्रचंड़ वेग से अग्नि प्रज्जवलित कर दुश्मन को भस्म कर देता था। यह अत्यंत
सुंदर
, तीव्रगामी, तुरंत संचालित होने वाला एक भयानक
अस्त्र था।
त्रिशूल
त्रिशूल
को हिंदू धर्म में आस्था का प्रतीक भी माना जाता है
| यह भगवान शिव का अस्त्र है जब वे कहीं
जाते हैं तो त्रिशूल को अपने पास ही रखते हैं. इस हथियार का इस्तेमाल महाभारत और
रामायण दोनों काल में किया गया था
| इस अस्त्र का इस्तेमाल करके भगवान शिव
ने अपने पुत्र श्री गणेश का सर भी धड़ से अलग किया था. भाले की तरह दिखने वाले
त्रिशूल में आगे की और तीन तेज धार वाले चाकू लगे होते हैं. आपने देखा होगा जहां
कहीं भी शिवजी का मंदिर होता है वहां पर त्रिशूल अवश्य लगा होता है
| महादेव का त्रिशूल प्रकृति के तीन
प्रारूप- आविष्कार
, रखरखाव और तबाही को भी दर्शाता है. तीनों काल- भूत,वर्तमान और भविष्य भी इस त्रिशूल के
अंदर समाते हैं. सिर्फ यही नहीं
, त्रिमूर्ति- ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी रूप त्रिशूल में देखा
जा सकता है.
तो फिर आइये देखते हैं पृथ्वी पर प्रभाव के नजरिए
से इन दोनों मे से कौन सा अस्त्र अधिक श्रेष्ठ है।
हम सब को पता है की सुदर्शन चक्र को भगवान विष्णु
ने अपने श्री कृष्ण अवतार मे किया था उस वक़्त भगवान कृष्ण ने अनेक रक्षसों का वध
किया। याद दिला दूँ महाभारत युद्ध मे भी एक बार मे समस्त कौरव सेना का नाश करने के
लिए उन्होने सुदर्शन चक्र उठाया था परंतु अर्जुन की प्रार्थना पर उन्होने उस समय
इसे चलाया नहीं था। शिशुपाल जैसे दुराचारी का वध भी श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन
चक्र से ही किया था। माता सती के मृत शरीर को भी भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र के
माध्यम से ही विभाजित किया था जो पृथ्वी पर 51 शक्तिपीठों के रूप मे  स्थापित हुए वहीं त्रिसुल के तीन सिरों के कई
अर्थ लगाए जाते हैं: --यह त्रिगुण मई सृष्टि का परिचायक है
,--यह तीन गुण सत्व, रज, तम का
परिचायक है
,
इनके तीनों के बीच सांमजस्य बनाए बगैर सृष्ट‌ि का
संचालन कठ‌िन हैं इसल‌िए श‌िव ने त्र‌िशूल रूप में इन तीनों गुणों को अपने हाथों
में धारण क‌िया। अब क्यूँ की बात श्रीष्टि के संचालन की है इसलिए कहा जा सकता है
की त्रिसुल ही श्रेष्ठ है।


Thursday, 26 September 2019

The Mysterious World of Great Aghori sadhu Revealed.... Life of Naga Sadhu

Aghoris are shamans. People who learn to navigate alternate conscious states. Whereas most people are confused by what they experience in dreams or during a drug -induced trip, aghoris learn to make sense out of it. This requires a lot of courage and the undisputed ability to trust the subconscious, this is why they have such harsh practises, which require the realizations that

  1. The reality we experience is absolutely objective.
  2. Most people condemn actions without ever having committed them.
The most important part about psychedelic trips is that they imitate death, and the aghoris survive harsh psychedelic overdoses. Often after the trip, they are convinced that they had died. That is why they put on human ash, to be as close to death as possible, their goal is to somehow learn the secrets of death or perhaps become immortal through yoga. Their entire discipline does not take any religion for granted or anything as truth before having experienced it for themselves. That is the truth about the aghoris, every truth is objective till experienced, even life.

Thursday, 29 August 2019

भगवान राम के जन्म की अद्भुत कथा... Story of Bhagwan Ram Kaal Chakra

शास्त्रों में लिखा है,“रमन्ते
योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते
अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते
हैं।
राम के चरित्र में भारत
की संस्कृति के अनुरूप पारिवारिक और सामाजिक जीवन के उच्चतम आदर्श पाए जाते हैं। उनमें
व्यक्तित्वविकास
,लोकहित तथा सुव्यवस्थित
राज्यसंचालन के सभी गुण विद्यमान थे। उन्होंने दीनों
, असहायों, संतों
और धर्मशीलों की रक्षा के लिए जो कार्य किए
, आचारव्यवहार
की जो परंपरा क़ायम की
, सेवा
और त्याग का जो उदाहरण प्रस्तुत किया तथा न्याय एवं सत्य की प्रतिष्ठा के लिए वे
जिस तरह अनवरत प्रयत्नवान्‌ रहे
, जिससे
उन्हें भारत के जन-जन के मानस मंदिर में अत्यंत पवित्र और उच्च आसन पर आसीन कर
दिया है।
बात उस समय की है जब महाराज दशरथ ने पुत्र प्राप्ति हेतु
यज्ञ आरंभ करने की ठानी। महाराज की आज्ञानुसार श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के
साथ छुड़वा दिया गया। महाराज दशरथ ने समस्त मनस्वी
, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ
प्रकाण्ड पण्डितों को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये बुलावा भेज दिया। निश्‍चित समय
आने पर समस्त अभ्यागतों के साथ महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा ऋंग ऋषि को
लेकर यज्ञ मण्डप में पधारे। इस प्रकार महान यज्ञ का विधिवत शुभारंभ किया गया।
सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओं के उच्च स्वर में पाठ से गूंजने तथा समिधा की
सुगन्ध से महकने लगा। समस्त पण्डितों
, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा करने के
साथ यज्ञ की समाप्ति हुई। राजा दशरथ ने यज्ञ के प्रसाद खीर को अपने महल में ले
जाकर अपनी तीनों रानियों में वितरित कर दिया। प्रसाद ग्रहण करने के परिणामस्वरूप
तीनों रानियों ने गर्भधारण किया।




जब
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य
, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च
स्थानों में विराजमान थे
, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ
से एक शिशु का जन्म हुआ जो कि नील वर्ण
, चुंबकीय आकर्षण वाले, अत्यन्त तेजोमय, परम कान्तिवान तथा अत्यंत सुंदर था। उस
शिशु को देखने वाले देखते रह जाते थे। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में
महारानी कैकेयी के एक तथा तीसरी रानी सुमित्रा के दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ।
चारो पुत्रों के जन्म से पूरी अयोध्या में उत्स्व मनाये जाने लगे
| राजा दशरथ के पिता बनने पर देवता भी
अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे
| अपने पुत्रों के जन्म की खुशी में राजा
दशरथ ने अपनी प्रजा को बहुत दान
दक्षिणा दी|

पुत्रों
के नामकरण के लिए महर्षि वशिष्ठ को बुलाया गया तथा उन्होंने राजा दशरथ के चारों
पुत्रों के नामकरण संस्कार करते हुए उन्हें राम
, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न नाम दिए|
भारत
की प्राचीन नगरियों में से एक अयोध्या को हिन्दू पौराणिक इतिहास में पवित्र सप्त
पुरियों में अयोध्या
, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवंतिका (उज्जयिनी) और द्वारका में शामिल किया गया है। अयोध्या को
अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की
गई है।
त्रेतायुग मे भगवान राम का जन्म यही हुआ था।

Saturday, 27 July 2019

वैद्यनाथ धाम देवघर से जुड़ी हैरान कर देने वाली सच्चाई...Baidyanath dham s...

वैद्यनाथ
मन्दिर
भारत
के
12 ज्योतिर्लिंगों में झारखण्ड के देवघर
जिले में स्थित वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग शामिल है। विश्व के सभी शिव मंदिरों के
शीर्ष पर त्रिशूल लगा दीखता है मगर वैद्यनाथधाम परिसर के शिव
, पार्वती, लक्ष्मी-नारायण व अन्य सभी मंदिरों के शीर्ष पर पंचशूल लगे हैं। कहा
जाता है कि रावण पंचशूल से ही अपने राज्य लंका की सुरक्षा करता था।
यहाँ प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि से 2
दिनों पूर्व बाबा मंदिर
, माँ पार्वती व लक्ष्मी-नारायण के मंदिरों से पंचशूल उतारे जाते हैं।
इस दौरान पंचशूल को स्पर्श करने के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है।
 पंचशूल पंचतत्वों-क्षिति, जल, पावक, गगन तथा समीर से बने मानव शरीर का
द्योतक है. मान्यता है कि यहां आने वाला श्रद्धालु अगर बाबा के दर्शन किसी कारणवश
न कर पाए
, तो
मात्र पंचशूल के दर्शन से ही उसे समस्त पुण्यफलों की प्राप्ति हो जाती है.
सावन महीने में यह पूरा क्षेत्र
केसरिया पहने शिवभक्तों से पट जाता है. भगवान भोलेनाथ के भक्त 105 किलोमीटर दूर
बिहार के भागलपुर के सुल्तानगंज में बह रही उत्तर वाहिनी गंगा से जलभर कर पैदल
यात्रा करते हुए यहां आते हैं और बाबा का जलाभिषेक करते हैं.
 आइये सुनते हैं बैद्यनाथ धाम से
जुड़ी पौराणिक कथा क्या है
?
ये काल चक्र है...
एक
बार रावण कैलाश पर्वत पर जाकर शिवजी की तपस्या करने लगा। लेकिन बहुत समय बीत जाने
के बाद भी शिवजी प्रसन्न नहीं हुए।
अब रावण यहां से हटकर हिमालय पर्वत पर
पुन: उग्र तपस्या करने लगा
,
फिर भी उसे भगवान के दर्शन नहीं हो
सके। इस पर रावण ने अपने शरीर को अग्नि में भेंट करने की ठानी। उसने दस मस्तकों को
एक-एक कर काटकर अग्नि में डालने लगा। नौ मस्तक अग्नि में समर्पित कर रावण जब दसवें
को काटने के लिए तैयार हुआ तो शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हुए।
शिव
की कृपा से उसके सभी मस्तक अपने-अपने स्थान से जुड़ गए। हाथ जोड़ कर प्रार्थना
करते हुए रावण ने वर मांगा
'हे
प्रभो! मैं अत्यंत पराक्रमी होना चाहता हूं। आप मेरे नगर में चल कर निवास करें। यह
सुन कर शिवजी बोले
, 'हे रावण! तुम मेरे शिवलिंग को उठा कर ले जाओ और इसका पूजन
करना
, किन्तु
ध्यान रहे मार्ग में कहीं भी इसे रखा
तो
यह वहीं
स्थापित हो जाएगा।
दोवताओं से सोचा की यदि भगवान शिव कैलाश छोड़
कर चले गए तो इस पृथ्वी का संतुलन बिगड़ जाएगा और इस समस्या के समाधान के लिए
विष्णु जी के पास गये। देवतायों कि याचना पर विष्णु जी ने एक लीला रची
इधर रावण शिवलिंग लेकर लंका की ओर चल पड़ा। कुछ दूर चलने के बाद उसे
लघुशंका की इच्छा हुई। उसने वहां एक चरवाहा
जिसका
नाम बैजु था
, को देखकर कुछ देर के लिए लिंग को हाथ में रखने
की गुहार लगाई। चरवाहे ने उत्तर दिया कि यदि वह जल्दी लौटकर नहीं आएगा तो शिवलिंग
को वहीं पर रख देगा। इतना सुनकर रावण उसे शिवलिंग देकर लघुशंका करने गया।
इधर
चरवाहे
जो ई भगवान विष्णु ही थे उन्होने शिवलिंग को जमीन पर रख दिया। पृथ्वी
पर रखते ही शिवलिंग उसी स्थान पर दृढ़ता पूर्वक जम गया। लघुशंका से लौटने के बाद
रावण ने शिवलिंग को उठाने का अथक प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो सका। आखिर में वह
निराश होकर घर लौट गया। रावण के चले जाने पर सभी देवताओं ने वहां आकर शिवलिंग की
पूजा की। शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए।
तब से यह
शिवलिंग ज्योतिर्लिंग के रूप मे प्रसिद्ध हो गया।

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