Tuesday, 12 December 2017

एक श्राप के कारण हुआ असुर सम्राट रावण का जन्म || The story of Ravan's bi...

              जय और विजय को शाप



असुर
सम्राट रावण के पिता एक ऋषि थे और उसकी माता एक असुर कन्या। उसे एक महापंडित
, महाज्ञानी, महान ज्योतिषशात्री और महान शिव भक्त
के तौर पर भी जाना जाता है। रावण के पास शास्त्र
, तंत्र-मंत्र, संगीत, ज्योतिष और खगोलविद्या का भी ज्ञान था। पौराणिक कथा के अनुसार रावण अपने
पूर्वजन्म में स्वर्गलोक से संबंध रखता है। लेकिन ऐसा क्या हुआ जो उसे ना सिर्फ
आगामी जन्म में बल्कि आने वाले तीन जन्मों तक असुर के रूप में ही जन्म लेना पड़ा?
ये
काल चक्र है इस काल चक्र में मैं आप सब का अभिनन्दन करता हूँ. मै आशा करता हूँ की
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जानते हैं रावण के स्वर्ग लोक से पृथ्वी लोक पर आने की कहानी.  
एक
बार ब्रह्मा जी के मानसपुत्र सनक
, सनन्दन, सनातन एवं सनतकुमार भगवान विष्णु के
दर्शन हेतु बैकुण्ठधाम पहुँचे।
जब वे भगवान विष्णु के द्वार पर पहुँचे
तो जय और विजय नामक दो द्वारपालों ने उन्हें रोककर कहा कि इस समय भगवान विष्णु
विश्राम कर रहे हैं
, अतः आप लोग भीतर नहीं जा सकते।
जय
और विजय के द्वारा इस प्रकार से रोके जाने पर ऋषिगणों ने क्रोधित होकर कहा
, "अरे मूर्खों! हम भगवान विष्णु के भक्त
हैं और भगवान विष्णु तो अपने भक्तों के लिए सदैव उपलब्ध रहते हैं। तुम दोनों अपनी
कुबुद्धि के कारण हम लोगो को भगवान विष्णु के दर्शन से विमुख रखना चाहते हो। ऐसे
कुबुद्धि वाले विष्णुलोक में रहने के योग्य नहीं है। अतः हम तुम्हें शाप देते हैं
कि तुम दोनों का देवत्व समाप्त हो जाये और तुम दोनों भूलोक में जाकर पापमय योनियों
में जन्म लेकर अपने पाप का फल भोगो।"सनकादिक ऋषियों के इस घोर शाप को सुनकर जय
और विजय भयभीत होकर उनसे क्षमा याचना करने लगे। इसी समय भगवान विष्णु भी वहाँ पर आ
गये। जय और विजय भगवान विष्णु से प्रार्थना करने लगे कि वे ऋषियों से अपना शाप
वापस ले लेने का अनुरोध करें।

भगवान
विष्णु ने उन दोनों से कहा
,
"
ऋषियों का शाप
कदापि व्यर्थ नहीं जा सकता। तुम दोनों को भूलोक में जाकर जन्म लेना ही पड़ेगा। अपने
अहंकार का फल भोग लेने के बाद तुम दोनों पुनः मेरे पास वापस आवोगे। तुम दोनों के
पास यहाँ वापस आने के लिए दो विकल्प है
, पहला
यह कि यदि तुम दोनों भूलोक में मेरे भक्त बन कर रहोगे तो सात जन्मों के बाद यहाँ
वापस आवोगे और दूसरा यह कि यदि भूलोक में जाकर मुझसे शत्रुता रखोगे तो तीन जन्मों
के बाद तुम दोनों यहाँ वापस आवोगे क्योंकि उन तीनों जन्मों में मैं ही तुम्हारा
संहार करूँगा।"
जय
और विजय सात जन्मों तक पृथ्वीलोक में नहीं रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने दूसरे
विकल्प को मान लिया।
उन्हीं जय और विजय भूलोक में सत् युग
में अपने पहले जन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु
, त्रेता युग में अपने दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा द्वापर
में अपने तीसरे जन्म में शिशुपाल और दन्तवक्र बने।
यस्य
कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे।
कृतमेवास्य
जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥
भावार्थ
:
दूसरे
लोग जिसके कार्य
, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह और विचार को कार्य पूरा हो जाने
के बाद ही जान पाते हैं
, वही व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है ।

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Wednesday, 15 November 2017

कलयुग का आगमन ... || Kaal Chakra

        कलयुग
का आगमन




पुराणों
में चार युगों के विषय में बताया गया है
, सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग। कलियुग को छोड़
दिया जाए तो तीनों ही युगों की अपनी-अपनी
कुछ न कुछ विशेषता रही है। परंतु कलियुग में विशेषता
जैसा तो कुछ भी नहीं दिखता, चारो ओर अहंकार, प्रतिशोध, लालच और आतंक ही दिखाई देता है। कलियुग
को एक श्राप कहा जाता है
,
जिसे हर मौजूदा इंसान भुगत रहा है। हां, तकनीक का अत्याधिक विकास भी इसी युग
में हुआ परंतु क्या केवल एक इसी बात के लिए हम हजारों नकारात्मक
शक्तियों
को नजरअंदाज कर सकते हैं?  शायद ही कोई व्यक्ति इस सवाल का जवाब हांमें देगा। महान गणितज्ञ आर्यभट्ट ने
अपनी पुस्तक
आर्यभट्टियममें इस बात का उल्लेख किया है कि जब वह
23 वर्ष के थे तब कलियुग का 3600वां वर्ष चल रहा था। आंकड़ों के अनुसार आर्यभट्ट का
जन्म 476 ईसवीं में हुआ था। गणना की जाए तो कलियुग का आरंभ 3102 ईसापूर्व हो चुका
था। क्या
आपने कभी इस बात की ओर ध्यान दिया है कि ऐसा क्या कारण रहा होगा जिसके
चलते कलियुग को धरती पर आना पड़ा
? वह ना सिर्फ आया बल्कि यहां आकर यहीं का हो गया,  आज हम इस विडियो मे कलयुग के
धरती पर आगमन की कहानी बताएँगे।
ये काल चक्र है इस काल चक्र मे मैं आप सब का
अभिनंदन करता हूँ। मै आशा करता हूँ की आप हमारे विडियो को पूरा देखेने के बाद
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बात उस समय की है जब धर्मराज युधिष्ठिर अपना पूरा
राजपाट परीक्षित को सौंपकर अन्य पांडवों और द्रौपदी समेत महाप्रयाण हेतु हिमालय की
ओर निकल गए थे। उन दिनों स्वयं धर्म
, बैल का रूप लेकर
गाय के रूप में बैठी पृथ्वी देवी से सरस्वती नदी के किनारे मिले। गाय रूपी पृथ्वी
के नयन आंसुओं से भरे हुए थे
, उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे।
पृथ्वी को दुखी देख धर्म ने उनसे उनकी परेशानी का कारण पूछा। धर्म ने कहा
देवी! क्या तुम इस बात से दुखी हो कि अब तुम्हारे ऊपर बुरी ताकतों का शासन
होगा
?
पृथ्वी बोली - "हे धर्म! तुम सर्वज्ञ होकर भी
मुझ से मेरे दुःख का कारण पूछते हो-- भगवान श्रीकृष्ण के जिन चरणों की सेवा
लक्ष्मी जी करती हैं उनमें कमल
, वज्र, अंकुश,
ध्वजा आदि के चिह्न विराजमान हैं और वे ही चरण मुझ पर पड़ते थे
जिससे मैं सौभाग्यवती थी। अब मेरा सौभाग्य समाप्त हो गया है यही मेरे दुख का कारण
है। धर्म और पृथ्वी आपस में बात कर ही रहे थे कि इतने में असुर रूपी कलियुग वहां आ
पहुंचा और बैल और गाय रूपी धर्म और पृथ्वी को मारने लगा। राजा परीक्षित वहां से
गुजर रहे थे
, जब उन्होंने यह दृश्य अपनी आंखों से देखा तो
कलियुग पर बहुत क्रोधित हुए। अपने धनुष पर बाण रखते हुए राजा परीक्षित ने कलियुग
से कहा
दुष्ट, पापी! तू कौन है?
इन निरीह गाय तथा बैल को क्यों सता रहा है? तू
महान अपराधी है। तेरा अपराध क्षमा योग्य नहीं है
, तेरा वध
निश्चित है।
राजा
परीक्षित का क्रोध देखकर कलियुग कांपने लगा। कलियुग भयभीत होकर अपने राजसी वेष को
उतार कर राजा परीक्षित के चरणों में गिर गया और क्षमा याचना करने लगा। राजा
परीक्षित ने शरण में आए हुए कलियुग को मारना उचित न समझा और उससे कहा
हे कलियुग! तू मेरे शरण में आ गया है
इसलिए मैं तुझे जीवनदान दे रहा हूं। किन्तु अधर्म
, पाप, झूठ, चोरी, कपट, दरिद्रता आदि अनेक उपद्रवों का मूल कारण केवल तू ही है। तू मेरे
राज्य से अभी निकल जा और फिर कभी लौटकर मत आना
परीक्षित
की बात को सुनकर कलियुग ने कहा कि पूरी पृथ्वी पर आपका निवास है
, पृथ्वी पर ऐसा कोई भी स्थान नहीं है
जहां आपका राज्य ना हो
, ऐसे में मुझे रहने के लिए स्थान प्रदान
करें
कलियुग
के ये कहने पर राजा परीक्षित
ने सोच विचार कर कहा झूठ, द्यूत, परस्त्रीगमन और हिंसा,  इन चार स्थानों में असत्य, मद, काम और क्रोध का निवास होता है। तू इन
चार स्थानों पर रह सकता है। परंतु इस पर कलियुग बोला - "हे राजन
, ये चार स्थान मेरे रहने के लिए प्रयाप्त
नहीं
है, मुझे अन्य जगह भी प्रदान कीजिए।  इस मांग पर राजा परीक्षित ने उसे स्वर्ण के रूप
में पांचवां स्थान प्रदान किया। कलियुग इन स्थानों के मिल जाने से प्रत्यक्षतः तो
वहाँ से चला गया किन्तु कुछ दूर जाने के बाद अदृश्य रूप में वापस आकर राजा
परीक्षित के स्वर्ण मुकुट में निवास करने लगा।
इस
प्रकार कलयुग का आगमन हुआ।
वृथा वृष्टिः समुद्रेषु, वृथा तृप्तेषु भोजनम् ।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवापि च ॥
समुद्र
के लिए वर्षा होना व्यर्थ है। तृप्त व्यक्ति के लिए भोजन व्यर्थ है। धनी व्यक्ति
को दान देना व्यर्थ है। दिन के समय दीपक जलाना व्यर्थ है।

How many years of kalyug
has passed,
When Kaliyuga is going
to end,
Where Kalki will born,
What are the four
Yugas,
When Kalki Avatar will
happen,
Which Yuga was Krishna
born in,

Wednesday, 1 November 2017

वैज्ञानिक भी हैं हैरान इन मन्दिरों को देख ... || Kaal Chakra

वैज्ञानिक भी हैं हैरान इन मन्दिरों को देख



मन्दिरों का अस्तित्व और उनकी भव्यता गुप्त राजवंश
यानि चौथी से छठी शताब्दी के समय से देखने को मिलती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं
होगा कि गुप्त काल से हिन्दू मंदिरों का महत्त्व और उनके आकार में उल्लेखनीय
विस्तार हुआ और उनकी बनावट पर स्थानीय वास्तुकला का विशेष प्रभाव पड़ा। उत्तरी
भारत में हिन्दू मंदिरों की उत्कृष्टता उड़ीसा तथा उत्तरी मध्यप्रदेश के खजुराहो
में देखने को मिलती है। उड़ीसा के भुवनेश्वर में स्थित लगभग 1000 वर्ष पुराना
लिंगराजा का मन्दिर वास्तुकला का सर्वोतम उदाहरण है। धर्म
, भक्ति, अध्यात्म और साधना का देश भारत, जहां प्राचीन काल से पूजा-स्थल के रूप में मंदिर विशेष महत्व रखते रहे
हैं। यहां कई मंदिर ऐसे हैं
, जहां अविश्वशनिए  चमत्कार भी होते बताए जाते हैं। जहां आस्थावानों
के लिए वे चमत्कार दैवी कृपा हैं
, तो अन्य के लिए आश्चर्य का
विषय। आइए जानते हैं
, भारत के कुछ विशिष्ट मंदिरों के बारे
में
, जिनके रहस्यों को असीम वैज्ञानिक प्रगति के बाद कोई
नहीं जान पाया है।
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 बृहदेश्वर
मन्दिर
बृहदेश्वर मन्दिर तमिलनाडु के तंजौर में स्थित एक विशाल
हिंदू मंदिर है जो 11वीं सदी के आरम्भ मे चोल शासक प्रथम राजराज चोल ने बनवाया था।
इसे तमिल भाषा में बृहदीश्वर के नाम से जाना जाता है। बृहदेश्वर मंदिर पूरी तरह से
ग्रेनाइट से नि‍र्मि‍त है। विश्व में यह अपनी तरह का पहला और एकमात्र मंदिर है जो
कि ग्रेनाइट का बना हुआ है। यह अपनी भव्यता
, वास्‍तुशिल्‍प और
केन्द्रीय गुम्बद से लोगों को आकर्षित करता है। इस मंदिर को यूनेस्को ने विश्व
धरोहर घोषित किया है। ग्रेनाइट इस इलाके के आसपास नहीं पाया जाता और यह रहस्य अब
तक रहस्य ही है कि इतनी भारी मात्रा में ग्रेनाइट कहां से लाया गया।
करणी माता मंदिर
इस मंदिर को चूहों वाली माता का मंदिर भी कहा जाता
है
,
यह मंदिर  राजस्थान के
बीकानेर से 30 किलोमीटर दूर देशनोक शहर में स्थित है। करनी माता इस मंदिर की
अधिष्ठात्री देवी हैं
, जिनकी छत्रछाया में चूहों का
साम्राज्य स्थापित है। इन चूहों में अधिकांश काले है
, लेकिन
कुछ सफेद भी है
, जो काफी दुर्लभ हैं। मान्यता है कि जिसे
सफेद चूहा दिख जाता है
, उसकी मनोकामना अवश्य पूरी होती है। आश्चर्यजनक
यह है कि ये चूहे बिना किसी को नुकसान पहुंचाए मंदिर परिसर में दौड़ते-भागते और
खेलते रहते हैं। वे लोगों के शरीर पर कूदफांद करते हैं
, लेकिन
किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते। यहां ये इतनी संख्या में हैं कि लोग पांव उठाकर
नहीं चल सकते
, उन्हें पांव घिसट-घिसटकर चलना पड़ता है,
लेकिन मंदिर के बाहर ये कभी नजर ही नहीं आते।
ज्वालामुखी मंदिर
ज्वाला देवी का प्रसिद्ध ज्वालामुखी मंदिर हिमाचल
प्रदेश के कालीधार पहाड़ी के मध्य स्थित है। यह भी भारत का एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ
है
,
जिसके बारे में मान्यता है कि इस स्थान पर माता सती की जीभ गिरी थी।
माता सती की जीभ के प्रतीक के रुप में यहां धरती के गर्भ से लपलपाती ज्वालाएं
निकलती हैं
, जो नौ रंग की होती हैं। इन नौ रंगों की ज्वालाओं
को देवी शक्ति का नौ रुप माना जाता है। किसी को यह ज्ञात नहीं है कि ये ज्वालाएं
कहां से प्रकट हो रही हैं
? ये रंग परिवर्तन कैसे हो रहा है?
आज भी लोगों को यह पता नहीं चल पाया है यह प्रज्वलित कैसे होती है
और यह कब तक जलती रहेगी
? कहते हैं, कुछ
मुस्लिम शासकों ने ज्वाला को बुझाने के प्रयास किए थे
, लेकिन
वे विफल रहे।
मेहंदीपुर बालाजी मंदिर
राजस्थान के दौसा जिले में स्थित है मेहंदीपुर का
बालाजी धाम। यह मंदिर भगवान हनुमान के 10 प्रमुख सिद्धपीठों में गिना जाता है।
मान्यता है कि इस स्थान पर हनुमानजी जागृत अवस्था में विराजते हैं। यहां देखा गया
है कि जिन व्यक्तियों के ऊपर भूत-प्रेत और बुरी आत्माओं का वास होता है
, वे यहां की प्रेतराज सरकार और कोतवाल कप्तान के मंदिर की जद में आते ही
चीखने-चिल्लाने लगते हैं और फिर वे बुरी आत्माएं
, भूत-पिशाच
आदि पल भर मे ही पीड़ितों के शरीर से बाहर निकल जाती हैं।
ऐसा कैसे और क्यूँ होता है, यह कोई नहीं जानता है? लेकिन लोग सदियों से
भूत-प्रेत और बुरी आत्माओं से मुक्ति के लिए दूर-दूर से यहां आते हैं। इस मंदिर
में रात में रुकना मना है।
आज का श्लोका ज्ञान:
नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ।।
विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहीं, (और) विद्या जैसा अन्य कोई
धन या सुख नहीं ।
दोस्तों हिन्दू मंदिरों के विषय मे हमारे द्वारा दी
गई जानकारी अगर आपको पसंद आई है तो हमारे इस विडियो को लाइक करें। अगर आपके मन मे
किसी भी हिन्दू मंदिर से जुड़ा कोई भी प्रश्न है तो आप हमे कमेंट बॉक्स मे बता सकते
हैं हम उस प्रश्न का उत्तर अवश्य देंगे। ऐसी हि नई नई जंकारियों के लिए हमारे इस
चैनल को सुब्स्कृबे जरूर करें। धन्यवाद।   
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Saturday, 14 October 2017

रानी पद्मिनी / पद्मावती का इतिहास Real Story Of Rani Padmini (Padmavati...

           
रानी पद्मावती का इतिहास




यदि
किसी
देश को
सदैव पराधीन बनाये रखना हो
, तो सबसे अच्छा उपाय यह है कि उस देश का इतिहास ही नष्ट कर दिया जाय और
अगर
कोई अवनत
राष्ट्र अपनी उन्नति करना
चाहता है, तो
उसे सबसे पहले अपने इतिहास
के निर्माण की आवश्यकता है। प्राचीन भारत
की सभ्यता
, संस्कृति तथा शासन कला का अध्ययन करने
के पूर्व इतिहास की उन सामग्रियों का अध्ययन करना अत्यावश्यक है जिनके द्वारा हमें
प्राचीन भारत के इतिहास का ज्ञान होता है। भारत के प्राचीन साहित्य तथा दर्शन के
संबंध में जानकारी के अनेक साधन उपलब्ध
तो हैं, परन्तु भारत के प्राचीन इतिहास की जानकारी के साधन संतोषप्रद नहीं
है। उनकी न्यूनता
के कारण अति प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं शासन का क्रमवद्ध इतिहास नहीं
मिलता है। 13वीं सदी की पराजयों के बाद भी किस तरह राजपूतों और दक्षिण भारत के
क्षत्रियोँ ने अपने धर्म को बचाए रखा और 14वीं-15वीं सदी में कितने संघर्षो के बाद
वापसी कर मुस्लिम सल्तनत को उखाड़ कर उत्तर और दक्षिण भारत में सफलतापूर्वक हिन्दू
राज्य बनाए गए
, इनके
बारे में कहीँ
कम ही बताया जाता। आज हम एक ऐसे ही घटना के बारे मे
बताने जा रहे हैं जिसके बारे मे कई तरह की अफवाह हम सब के बीच परचलित है। ये कहानी
है चित्तोड़ की महारानी पद्मावती
, राजा रत्न सिंह, उसी राज्य के अत्यंत पराक्रमी और साहसी सेनापति गौरा बादल के बलिदान की।
ये काल चक्र है इस काल चक्र मे मैं आप सब का
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latest
update के लिए।
रानी पद्मावती ने अपना बचपन अपने पिता गंधर्वसेन और
माता चम्पावती के साथ सिंहाला में व्यतीत किया था। बाद मे रानी पद्मावती का विवाह
चित्तौड़ के राजा रावल रतन सिंह से हुआ और वो चित्तौड़ की महारानी हुई। रानी
पद्मावती अत्यंत हीं सुंदर स्त्री थीं। बात उस समय की है जब राजा रावल सिंह ने अपने
एक मुख्य संगीतकार राघव चेतन को अपने महल से निकाल दिया था। उस समय दिल्ली की
गद्दी पर अलाउद्दीन खिलजी का राज था। अपने अपमान और राज्य से निर्वासित किये जाने
पर राघव चेतन बदला लेने पर आतुर था। उसके जीवन का सिर्फ और सिर्फ एक ही लक्ष्य रह
गया था
, और वह था चित्तौड़ के महाराज रत्न सिंह की मृत्यु। अपने इसी उद्देश के साथ
वह दिल्ली चला गया। वहां जाने का उसका मकसद दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी को
उकसा कर चित्तौड़ पर आक्रमण करवा कर अपना प्रतिशोध पूरा करने का था। वहाँ जा कर
उसने चित्तौड़ की महारानी पद्मावती के सौन्दर्य का बखान करना शुरू कर दिया। जिससे
ख्लिजी बहुत प्रभावित हुआ और रानी पद्मावती पर मोहित हो गया।
कुछ ही दिनों बाद अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ राज्य
पर आक्रमण करने का मन बना लिया और अपनी एक विशाल सेना लेकर चित्तौड़ राज्य की ओर चल
दिया। अलाउद्दीन खिलजी की सेना चित्तौड़ तक पहुँच तो गयी पर चित्तौड़ के किले की
अभेद्य सुरक्षा देख कर अलाउद्दीन खिलजी की पूरी सेना हैरान रह गयी। बहुत प्रयासो
के बावजूद वो किले को भेदने मे असफल रहते हैं। उन्होने वहीं किले के आस पास अपने
पड़ाव डाल लिए और चित्तौड़ राज्य के किले की सुरक्षा भेदने का उपाय ढूँढने लगे। अंत
मे उन्होने एक योजना बनाई और योजना के तहत --
अलाउद्दीन
खिलजी नें राजा रावल रत्न सिंह को संदेश भेजा
जिसमे
उसने रानी पद्मावती को देखने की इक्षा प्रकट की जिसको पहले तो राजपूत मर्यादा के
विरुद्ध बता कर राजा रत्न सिंह नें ठुकरा दिया। पर बाद मे
अलाउद्दीन खिलजी के आग्रह
और संधि के सुझाव पर राजा ने आईने मे रानी को दिखाने की बात सुविकर कर ली। उनके
सेनापति गौरा राजा की इस बात से सहमत नहीं थे। और राजा से रुष्ट भी हो गए थे। चित्तौड़
के महाराज ने अलाउद्दीन खिलजी को आईने में रानी पद्मावती का प्रतिबिंब दिखला दिया
और फिर अलाउद्दीन खिलजी को खिला-पिला कर पूरी महेमान नवाज़ी के साथ चित्तौड़ किले के
सातों दरवाज़े पार करा कर उनकी सेना के पास छोड़ने खुद गये। इसी अवसर का लाभ ले कर
कपटी अलाउद्दीन खिलजी नें राजा रावल रत्न सिंह को बंदी बना लिया और किले के बाहर
अपनी छावनी में कैद कर दिया। और इसके बाद संदेशा भिजवा दिया की अगर चित्तौड़ के
महाराज को जीवित देखना चाहते हो तो रानी पद्मावती को किले के बाहर ले आया जाए।
जब रानी पद्मावती को इस बात का पता चला तो वो बहुत
व्याकुल हो उठीं
, और राजा से रुष्ट हो चुके सेनापति
गौरा और उनके भतीजे बादल के पास गईं। और उनसे कहा की राज्य खतरे मे है आप ही इस
राज्य की रक्षा कर सकते हैं। राज्य की रानी के आग्रह पर गौरा बादल ने एक बड़ी ही
अद्भुत योजना बनाई। इस योजना के तहत किले के बाहर मौजूद अलाउद्दीन खिलजी तक यह
पैगाम भेजना था की रानी पद्मावती समर्पण करने के लिये तैयार है और पालकी में बैठ
कर किले के बाहर आने को राज़ी है। और फिर पालकी में रानी पद्मावती और उनकी सैकड़ों
दासीयों की जगह नारी भेष में लड़ाके योद्धा भेज कर बाहर मौजूद दिल्ली की सेना पर
आक्रमण कर दिया जाए और इसी अफरातफरी में राजा रावल रत्न सिंह को अलाउद्दीन खिलजी
की कैद से मुक्त करा लिया जाये।
ऐसा ही हुआ अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मावती पर इतना
मोहित था की उसने इस बात की पड़ताल करना भी ज़रूरी नहीं समझा की सभी पालकियों को
रुकवा कर यह देखे कि उनमें वाकई में दासियाँ ही है। कुछ ही देर में अलाउद्दीन
खिलजी नें रानी पद्मावती की पालकी अलग करवा दी और परदा हटा कर उनका दीदार करना
चाहा। तो उसमें से राजपूत सेनापति गौरा निकले और उन्होने आक्रमण कर दिया। उसी वक्त
चित्तौड़ सिपाहीयों नें भी हमला कर दिया भीषण युद्ध आरंभ हो गया... गौरा और बादल ने
शत्रु सेना मे कोहराम मचा दिया। चित्तौड़ की भूमि पर ऐसा खून खराबा कभी नहीं हुआ
था। वहाँ मची अफरातफरी के बीच बादल नें राजा रावल रत्न सिंह को बंधन मुक्त करा
लिया और उन्हे एक घोड़े पर बैठा कर सुरक्षित चित्तौड़ किले के अंदर पहुंचा दिया। चित्तौड़
के सेनापति गौरा और खिलजी के सेनापति जफर के बीच युद्ध अपने चरम पर पहुँच गया था
जफर ने गौरा का सर धड़ से अलग कर दिया इसके बावजूद गौरा के धड़ ने जफर का सर कट
दिया। उस युद्ध मे गौरा और बादल समेत सभी सैनिक शहीद हो गए इसप्रकार उन्होने अपने
राजा की रक्षा की थी।
खिलजी रानी पद्मावती के सौंदर्य पे इतना ज्यदा आकर्षित
था की वो  किले के बाहर इंतज़ार करता रहा।
बाद मे जब किले के अंदर भोजन सामग्री खत्म हो गई तब राजा रावल सिंह ने आर पर की
लड़ाई लड़ने का फैसला किया। और अपने सैनिकों के साथ खिलजी पर आक्रमण कर दिया लड़ते
लड़ते उन्होने युद्ध क्षेत्र मे अपने प्राण तयागे। जब रानी पद्मावती को राजा के
मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होने राजपूतना रीति अनुसार वहाँ की सभी महिलाओं नें
जौहर करने का फैसला लिया।
जौहर की रीति निभाने के लिए नगर के बीच एक बड़ा सा
अग्नि कुंड बनाया गया और रानी पद्मावती और अन्य महिलायेँ एक के बाद एक  उस धधकती चिता में कूद कर अपने प्राणों की बलि
दे दी।
रानी पद्मावती और राजा रत्न सिंह के इस बलिदान की
गाथा पर समस्त राजपूतना गौरवान्वित हो उठा।
दोस्तों रानी पद्मावती के विषय मे हमारे द्वारा दी
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Wednesday, 11 October 2017

ॐ की उत्पत्ति | The origin of OM | Kaal Chakra

             
 ॐ
की उत्पत्ति




ॐ ही ब्रह्म है। ॐ ही यह प्रत्यक्ष जगत् है। ॐ ही
इस जगत की  अनुकृति है। ॐ-ॐ कहते हुए ही
शस्त्र रूप मन्त्र पढ़े जाते हैं। ॐ से ही अध्वर्यु प्रतिगर मन्त्रों का उच्चारण
करता है। ॐ कहकर ही अग्निहोत्र प्रारम्भ किया जाता है। ॐ कहकर ही ब्रह्म को
प्राप्त किया जा सकता है। सनातन धर्म ही नहीं
, भारत के अन्य
धर्म-दर्शनों में भी ॐ को महत्व प्राप्त है। बौद्ध-दर्शन में ॐ का प्रयोग जप एवं
उपासना के लिए प्रचुरता से होता है। जैन दर्शन में भी ॐ के महत्व को दर्शाया गया
है। श्रीमद्मागवत्
गीता में ॐ के महत्व को कई बार
रेखांकित किया गया है
, आठवें अध्याय में उल्लेख मिलता है
कि जो ॐ अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है
, वह परम गति प्राप्त करता है। तो फिर इस ॐ की उत्पत्ति कैसे और कब हुई? हमारे जीवन मे ॐ का महत्व क्या है? ॐ का शुद्ध
उच्चारण क्या है
?
ये काल चक्र है इस काल चक्र में मैं आप सब का
अभिनंदन करता हूँ मैं  आशा करता आप इस
विडियो को पूरा देखने के बाद हमारे इस चैनल को सुब्स्कृबे जरूर करेंगे और
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ॐ ध्वनि की प्रकृति पर ध्यान दिया जाए तो हमे पता
चलेगा की इसमे तीन अक्षरों का समावेश है अ
,, और म। । "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना,
"उ" का अर्थ है उठना, अर्थात् विकास,
"म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् मृत्यु को प्राप्त
करना। "अ" ब्रह्मा का वाचक है
; उच्चारण द्वारा
हृदय में उसका त्याग होता है। "उ" विष्णु का वाचक हैं
; उसका त्याग कंठ में होता है तथा "म" रुद्र का वाचक है ओर उसका
त्याग तालुमध्य में होता है। इस प्रकार से ब्रह्मग्रंथि
, विष्णुग्रंथि
तथा रुद्रग्रंथि का छेदन हो जाता है। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी
सृष्टि का द्योतक है।
आसान भाषा में कहें तो निराकार ईश्वर को एक शब्द
में व्यक्त किया जाये तो वह शब्द ॐ ही है। यह हमारे आपके स्वांस की गति को
नियंत्रित कर सकता है। विज्ञान ने भी ॐ के उच्चारण और उसके लाभ को प्रमाणित किया
है। यह धीमी
, सामान्य और पूरी साँस छोड़ने में सहायता करती
है। यह हमारे श्वसन तंत्र को विश्राम देता है और हमारे मन-मस्तिष्क को शांत करता
है। ॐ मंत्र आपको सांसरिकता से अलग कर के आपको स्वयं से जोड़ता है। ॐ मंत्र का जाप
हीं वह सीढ़ी है जो आपको समाधि और आध्यात्मिक ऊँचाइयों पर ले जाएगी।
दोस्तों आज से ही इस मंत्र का जप प्रारम्भ कर
दीजिये आप देखेंगे कैसे आपको हर तरह के चिंता से मुक्ति मिलती है। जप करने से पहले
काल चक्र की तरफ से बतायीं गईं कुछ विशेष बातों पर ध्यान जरूर दीजिएगा।
शांत स्थान पर आरामदायक स्थिति में बैठिए।
आंखें बंद करके शरीर और नसों में ढीला छोड़िए।
कुछ लम्बी सांसें लीजिए।
ॐ मंत्र का जाप करिए और इसके कंपन महसूस कीजिए।
इस प्रकार जप करने से आप स्वयं को परम शांति तक ले
जा सकते हैं।
आज का श्लोका ज्ञान:
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥
भावार्थ :
पीठ पीछे काम बिगाड़नेवाले था सामने प्रिय बोलने
वाले ऐसे मित्र को मुंह पर दूध रखे हुए विष के घड़े के समान त्याग देना चाहिए ।
दोस्तों हमारे द्वारा ॐ के विषय मे दी गई जानकारी
अगर आपको पसंद आयी है तो हमारे इस विडियो को लाइक जरूर करें
, अगर आपके मन मे हिन्दू देवी देवताओं से जुड़ा कोई भी प्रश्न है तो हमे
कमेंट बॉक्स मे बताएं हम उस प्रश्न का उत्तर अवश्य देंगे। ऐसे ही धार्मिक
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करें। धन्यवाद ।    
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the universe,
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Sunday, 1 October 2017

भगवान पारसुराम और भीष्म पितामह का महायुद्ध ....

भगवान पारसुराम और भीष्म पितामह का महायुद्ध



महाभारत
में मुख्यतः चंद्रवंशियों के दो परिवार कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का
वृत्तांत है। 100 कौरवों और पाँच पाण्डवों के बीच कुरु साम्राज्य की भूमि के लिए
जो संघर्ष चला
वह अत्यंत भयानक था। परंतु उसी महाभारत काल मे कई
अन्य युद्ध भी लड़े गए जिनका जिक्र अल्प ही मिलता है। आज हम एक ऐसे युद्ध का वर्णन
करने जा रहे हैं जिसके कारण इस समस्त धरती का विनाश होने ही वाला था। ये युद्ध था
भगवान पारसुराम और उनके ही शिष्य भीष्म पितामह के बीच। परंतु ऐसा क्या हुआ था
जिसके कारण गुरु को अपने ही शिष्य से इतना भयानक युद्ध करना पड़ा
? इस युद्ध मे कौन विजयी हुआ? इस युद्ध का इस संसार
पर क्या प्रभाव पड़ा
?
ये काल चक्र है इस काल चक्र मे मै आप सब का अभिनंदन
करता हूँ मै आशा करता हूँ की आप इस विडियो को पूरा देखने के बाद हमारे इस चैनल को
सुब्स्कृबे जरूर करेंगे और
YouTube के bell icon को बजाना न भूलें हमारे latest update के लिए।
बात उस समय की है जब देवी अम्बा को पितामह भीष्म
अपनी पत्नी सुविकर नहीं करते हैं क्यूँ की उन्होने आजीवन ब्रहचर्या का पालन करने
का व्रत लिया हुआ था। तब अम्बा प्रतिशोध वश सहायता मंगेने के लिए भगवान परसुराम के
पास आयीं और बोली भगवान आपके शिष्य भीष्म  ने मेरे साथ अन्याय किया सिर्फ आप ही उसे दंड दे
सकते हैं। इसपर भगवान पारसुरम बोले— ये असंभव है देवी मेरा शिष्य कभी अधर्म नहीं
कर सकता आपसे जरूर कोई भूल हुई है। देवी अम्बा विलाप करते हुए बोली भगवान मेरे साथ
अन्याय हुआ है आप मेरी सह्यता कीजिये वरना मै अभी इसी जगह चीता जला कर उसमे अपने
प्राण त्याग दूँगी।
भगवान परसुराम को उनपर दया आ गई और उन्होने कहा-
जाओ जाकर कर भीष्म से कहो की या तो वो तुम्हें अपनी पत्नी रूप मे सुविकर करे या
फिर मुझसे युद्ध करे।
पीतमह भीष्म को जब इस बात की जानकारी हुई तो वो
बहुत व्याकुल हो गए और अपने गुरु से मिलने चले आए। भीष्म ने भगवान पारसुरम से कहा—भगवान
आप तो जानते है मै ने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया फिर भला मै इस स्त्री से कैसे विवाह
कर लूँ। भगवान परसुराम ने कहा- भीष्म अगर तुम दोषी नही हो तो अपने आप को निर्दोष
साबित करो। मुझसे निडरता से युद्ध करना ही तुम्हारी निर्दोषिता को दर्शाएगा।
पितामह भीष्म ने कहा- मै अपना प्राण त्यागना पसंद
करूंगा परंतु आपसे युद्ध नही कर सकता गुरुदेव।
भगवान पारसुरम ने कहा मैंने इस स्त्री को तुमसे
युद्ध करने का वचन दिया युद्ध तो तुम्हें करना की पड़ेगा और कहते कहते उन्होने एक
ऐसा बाण छोड़ा जिससे आकाश से अग्नि का आगमन होने लगा
, पीतमह भीष
ने अपना धनुष उठाया और उस बाण के प्रतिउतर मे एक ऐसा बाण छोड़ा जिससे उस अग्नि की
ऊर्जा समाप्त हो गई और फूलों की वर्षा होने लगी। बाण विफल होता देख भगवान पारसुरम
को क्रोध आ गया और उन्होने अनेकों अस्त्रों से प्रहार करना आरंभ कर दिया पीतमह
भीष्म उनके सारे प्रहार विफल करते चले गए। हर एक प्रहार विफल होता देख भगवान
पारसुरम का क्रोध अपने चरम सीमा को पर कर गया उन्होने अपने परसू को आह्वान दिया
, पारसू का आह्वान देख पितामह भीष्म ने ब्रह्मास्त्र को आह्वान दे दिया।
चरो ओर हाहाकार मच गया पृथ्वी का संतुलन बिगड़ने लगा
, प्रलय
जैसी स्टीठी पैदा होने लगी। भगवान पारसुरम ने अपना पारसू भीष्म के ऊपर छोड़ दिया और
भीषम  ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रहार कर दिया।
तब इस समस्त संसार को बचाने के लिए भगवान महादेव ने युद्ध क्षेत्र मे प्रवेश लिया
और उन दोनों अस्त्रों को अपने तीसरे नेत्रा मे समा लिया। महादेव ने उन दोनों को
युद्ध खतम करने को कहा दोनों ने ही उनकी बात मन ली। भगवान शिव ने देवी अम्बा को ये
वरदान दिया की
, अलगे जन्म मे यदि किसी नेक कार्य के लिए तुम
भीष्म की मृत्यु की कमाना करोगी तो तुम्हीं उसकी मृत्यु का कारण बनोगी। दोस्तो अगले
जन्म में अंबा ने शिखंडी के रूप में जन्म लिया और भीष्म की मृत्यु का कारण बनी।
आज का श्लोका ज्ञान :

धर्मज्ञो
धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
तत्त्वेभ्यः
सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते।
धर्म
को जाननेवाले
, धर्म
मुताबिक आचरण करनेवाले
, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करने वाले गुरु कहे जाते
हैं।
दोस्तों
भगवान
पारसुरम और पितामह भीषम से जुड़ी ये रोचक कथा 
अगर
आपको पसंद आयी है तो हमारे इस विडियो को लाइक जरूर करें
, अगर आपके मन मे हमारे हिन्दू देवी देवताओं
से जुड़ा हुआ कोई प्रश्न है तो हमे कमेंट बाक्स में बताए। हम उस प्रश्न का उत्तर
अवश्य देंगे। और ऐसी हीं प्रेरणादायी पौराणिक कहानीयां सुनने के लिए हमारे इस चैनल
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भीष्म और भगवान पारसुराम के बिच महाभयंकर
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श्री राम और महादेव का महायुद्ध ....

Saturday, 30 September 2017

अमरनाथ की गुफा मे दो कबूतरों का रहस्य.... Amarnath Cave Mystery

आदि
देव
,
महादेव
,
स्वयंभू पशुपति
,
नीलकंठ
,
भगवान आशुतोष
,
शंकर भोले भंडारी को सहस्त्रों नामों से
पुजा जाता है। श्री अमरनाथ धाम एक ऐसा शिव धाम है
जिसके संबंध में मान्यता है कि भगवान शिव साक्षात श्री अमरनाथ गुफा में विराजमान
रहते हैं। धार्मिक व ऐतिहासिक दृष्टी से अति महत्वपूर्ण श्री अमरनाथ यात्रा
हम
सब के लिए
स्वर्ग
की प्राप्ति का माध्यम
है। पावन गुफा में बर्फीली बूंदों से बनने वाला
हिमशिवलिंग ऐसा दैवी चमत्कार है जिसे देखने के लिए हर कोई
उत्साहित
रहता है और जो देख लेता है वो धन्य हो
जाता है। कश्मीर घाटी में स्थित पावन श्री अमरनाथ गुफा
एक प्राकृतिक गुफा है। इस गुफा की लंबाई
 लगभग 160 फुट, और चौडाइ
लगभग
100 फुट है। आज
इस विडियो मे हम आपको अमरनाथ गुफा मे शिव जी के पधारने का कारण बताएँगे
, साथ ही ये जनेएंगे की यहाँ निवाश कर रहे उन कबूतरों के जोड़ो का क्या
रहस्य है
?




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सुनते हैं अमरनाथ की अमर गाथा।
बात उस समय की है एक बार जब माता पार्वती ने देवों
के देव महादेव से पूछा— ऐसा क्यों है की आप आजर हैं अमर हैं
? आपके कंठ में पडी़ नरमुंड माला और अमर होने के रहस्य क्या हैं?
इसपर महादेव ने पहले तो माता पार्वती को उन सवालों
का जवाब देना उचित नहीं समझा । इसलिए उन्होने उस बात को टालने की कोशिश की परंतु
माता पार्वती के हठ के कारण शिव जी ने उन्हे अमरता के इस गूढ रहश्य को बताना
स्वीकार किया।
इस रहस्य को बताने के लिए भगवान शिव को एक अत्यंत
एकांत जगह की आवश्यकता थी। और इसी जगह की तलाश करते हुए वो माता पार्वती को लेकर
आगे बढ़ते गए। गुप्त स्थान की तलाश में महादेव ने अपने वाहन नंदी को सबसे पहले
छोड़ा
,
नंदी जिस जगह पर छूटा, उसे ही पहलगाम कहा जाने
लगा। अमरनाथ यात्रा यहीं से शुरू होती है।
यहां से थोडा़ आगे चलने पर शिवजी ने अपनी जटाओं से
चंद्रमा को अलग कर दिया
, जिस जगह ऐसा किया वह चंदनवाडी
कहलाती है। इसके बाद गंगा जी को पंचतरणी में और कंठाभूषण सर्पों को शेषनाग पर छोड़
दिया
, इस प्रकार इस पड़ाव का नाम शेषनाग पड़ा। अमरनाथ यात्रा
में पहलगाम के बाद अगला पडा़व है गणेश टॉप
, मान्यता है कि
इसी स्थान पर महादेव ने पुत्र गणेश को छोड़ा।
जीवांदायिनी पांचों तत्वों को पीछे छोड़ने के बाद
भगवान शिव ने  माता पार्वती के साथ उस
पवित्र गुफा मे प्रवेश लिया। कोर्इ भी तीसरा प्राणी
, यानी कोई
व्यक्ति
, पशु या पक्षी गुफा के अंदर घुस कथा को न सुन सके इस
कारण भगवान शिव ने चारों ओर अग्नि प्रज्जवलित कर दी। फिर महादेव ने जीवन के उस गूढ़
रहस्यों की कथा शुरू कर दी।
मान्यता है की कथा सुनते सुनते देवी पार्वती को
नींद आ गई
, वो सो गईं, महादेव को पता
ही नहीं चला और वो कथा सुनते रहे। उस समय वो कथा दो सफ़ेद कबूतर सुन रहे थे और बीच
बीच मे गूं गूं की आवाज निकाल रहे थे जिससे महादेव को लगा की माता पार्वती उनकी
कथा सुन रही हैं।
दोनों कबूतर कथा सुनते रहे जब कथा समाप्त हुई और
भगवान शिव का ध्यान माता पार्वती पर गया तो उन्होने देखा की वो तो सो गईं हैं। तब
महादेव की नजर उन दोनों कबूतरों पर पड़ी उनको देखते ही महादेव को उनपर क्रोध आ गया।
कबूतर का जोड़ा उनकी शरण में आ गया और उन्होने बोला
-- भगवन्
हमने आपसे अमरकथा सुनी है
, यदि आप हमें मार देंगे तो यह कथा
झूठी हो जाएगी
, हमें पथ प्रदान करें। इस पर महादेव ने उन्हें
वर दिया कि तुम सदैव इस स्थान पर शिव व पार्वती के प्रतीक चिह्न में निवास करोगे।
अंतत: कबूतर का यह जोड़ा अमर हो गया और यह गुफा अमर कथा की साक्षी हो गर्इ। इस तरह
इस स्थान का नाम अमरनाथ पड़ा।
आज का श्लोका ज्ञान :
 चन्दनं
शीतलं लोके
,चन्दनादपि चन्द्रमाः |
  चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये
शीतला साधुसंगतिः
अर्थात् : संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है
लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है
| अच्छे मित्रों का
साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है
|
दोस्तों हमरे द्वारा दी गई जानकारी अगर आपको पसंद
आयी है तो हमारे इस विडियो को लाइक जरूर करें
, अगर आपके मन मे
हमारे हिन्दू देवी देवताओं से जुड़ा हुआ कोई प्रश्न है तो हमे कमेंट बाक्स में
बताए। हम उस प्रश्न का उत्तर अवश्य देंगे। और ऐसी हीं प्रेरणादायी पौराणिक कहानीयां
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 How far
is Amarnath from Jammu?
 How is
shivling formed in Amarnath?
 Where is
the Shiv Khori?
Who built the Badrinath temple?
How many days it will take for Amarnath Yatra?

कलयुग में नारायणी सेना की वापसी संभव है ? The Untold Story of Krishna’s ...

क्या महाभारत युद्ध में नारायणी सेना का अंत हो गया ... ? या फिर आज भी वो कहीं अस्तित्व में है ... ? नारायणी सेना — वो ...