भगवान शिव और माता पार्वती के स्वर्ण महल की कथा।
भगवान शिव नित्य और अजन्मा हैं। इनका आदि और अंत न होने से
वे अनन्त हैं। इनके समान न कोई दाता है, न तपस्वी, न ज्ञानी , न त्यागी, न वक्ता है और न
ऐश्वर्यशाली। भगवान शिव का एक नाम ‘आशुतोष’ है। ‘आशु’ का अर्थ है अति
शीघ्र, ‘तोष’ यानी प्रसन्न होने वाले। उपासना से शीघ्र ही
प्रसन्न होने के कारण उन्हें आशुतोष कहते है। आज इस विडियो मे भगवान शिव और माता पार्वती से जुड़ी एक रोचक
कहानी सुनाएँगे...
वे अनन्त हैं। इनके समान न कोई दाता है, न तपस्वी, न ज्ञानी , न त्यागी, न वक्ता है और न
ऐश्वर्यशाली। भगवान शिव का एक नाम ‘आशुतोष’ है। ‘आशु’ का अर्थ है अति
शीघ्र, ‘तोष’ यानी प्रसन्न होने वाले। उपासना से शीघ्र ही
प्रसन्न होने के कारण उन्हें आशुतोष कहते है। आज इस विडियो मे भगवान शिव और माता पार्वती से जुड़ी एक रोचक
कहानी सुनाएँगे...
ये काल चक्र है...
एक बार की बात है, देवी पार्वती का मन खोह और कंदराओं में रहते हुए ऊब गया। दो
नन्हें बच्चे और तरह तरह की असुविधाएँ। उन्होंने भगवान शंकर से अपना कष्ट बताया और
अनुरोध किया कि अन्य देवताओं की तरह अपने लिये भी एक छोटा सा महल बनवा लेना
चाहिये। शंकर जी को उनकी बात जम गई।
नन्हें बच्चे और तरह तरह की असुविधाएँ। उन्होंने भगवान शंकर से अपना कष्ट बताया और
अनुरोध किया कि अन्य देवताओं की तरह अपने लिये भी एक छोटा सा महल बनवा लेना
चाहिये। शंकर जी को उनकी बात जम गई।
ब्रह्मांड के सबसे योग्य वास्तुकार विश्वकर्मा महाराज को
बुलाया गया। पहले मानचित्र तैयार हुआ फिर शुभ मुहूर्त में भूमि पूजन के बाद तेज
गति से काम शुरू हो गया। महल आखिर शंकर पार्वती का था कोई मामूली तो होना नहीं था।
विशालकाय महल जैसे एक पूरी नगरी, जैसे कला की अनुपम कृति, जैसे पृथ्वी पर
स्वर्ग। निर्माता भी मामूली कहाँ थे! विश्वकर्मा ने पूरी शक्ति लगा दी थी अपनी
कल्पना को आकार देने में। उनके साथ थे समस्त स्वर्ण राशि के स्वामी कुबेर ! बची
खुची कमी उन्होंने शिव की इस भव्य निवास-स्थली को सोने से मढ़कर पूरी कर दी।
बुलाया गया। पहले मानचित्र तैयार हुआ फिर शुभ मुहूर्त में भूमि पूजन के बाद तेज
गति से काम शुरू हो गया। महल आखिर शंकर पार्वती का था कोई मामूली तो होना नहीं था।
विशालकाय महल जैसे एक पूरी नगरी, जैसे कला की अनुपम कृति, जैसे पृथ्वी पर
स्वर्ग। निर्माता भी मामूली कहाँ थे! विश्वकर्मा ने पूरी शक्ति लगा दी थी अपनी
कल्पना को आकार देने में। उनके साथ थे समस्त स्वर्ण राशि के स्वामी कुबेर ! बची
खुची कमी उन्होंने शिव की इस भव्य निवास-स्थली को सोने से मढ़कर पूरी कर दी।
तीनों लोकों में जयजयकार होने लगी। एक ऐसी अनुपम नगरी का
निर्माण हुआ था जो पृथ्वी पर इससे पहले कहीं नहीं थी। गणेश और कार्तिकेय के आनंद
की सीमा नहीं थी। पार्वती फूली नहीं समा रही थीं, बस एक ही चिंता
थी कि इस अपूर्व महल में गृहप्रवेश की पूजा का काम किसे सौंपा जाय। वह ब्राह्मण भी
तो उसी स्तर का होना चाहिये जिस स्तर का महल है। उन्होंने भगवान शंकर से राय ली।
बहुत सोच विचार कर भगवान शंकर ने एक नाम सुझाया- रावण।
निर्माण हुआ था जो पृथ्वी पर इससे पहले कहीं नहीं थी। गणेश और कार्तिकेय के आनंद
की सीमा नहीं थी। पार्वती फूली नहीं समा रही थीं, बस एक ही चिंता
थी कि इस अपूर्व महल में गृहप्रवेश की पूजा का काम किसे सौंपा जाय। वह ब्राह्मण भी
तो उसी स्तर का होना चाहिये जिस स्तर का महल है। उन्होंने भगवान शंकर से राय ली।
बहुत सोच विचार कर भगवान शंकर ने एक नाम सुझाया- रावण।
समस्त विश्व में ज्ञान, बुद्धि, विवेक और अध्ययन
से जिसने तहलका मचाया हुआ था, जो तीनो लोकों में आने जाने की शक्ति रखता था, जिसने निरंतर
तपस्या से अनेक देवताओं को प्रसन्न कर लिया और जिसकी कीर्ति दसों दिशाओं में
स्वस्ति फैला रही थी, ऐसा रावण गृहप्रवेश की पूजा के लिये, श्रीलंका से, कैलाश पर्वत पर
बने इस महल में आमंत्रित किया गया। रावण ने आना सहर्ष स्वीकार किया और सही समय पर
सभी कल्याणकारी शुभ शकुनों और शुभंकर वस्तुओं के साथ वह गृहप्रवेश के हवन के लिये
उपस्थित हुआ।
से जिसने तहलका मचाया हुआ था, जो तीनो लोकों में आने जाने की शक्ति रखता था, जिसने निरंतर
तपस्या से अनेक देवताओं को प्रसन्न कर लिया और जिसकी कीर्ति दसों दिशाओं में
स्वस्ति फैला रही थी, ऐसा रावण गृहप्रवेश की पूजा के लिये, श्रीलंका से, कैलाश पर्वत पर
बने इस महल में आमंत्रित किया गया। रावण ने आना सहर्ष स्वीकार किया और सही समय पर
सभी कल्याणकारी शुभ शकुनों और शुभंकर वस्तुओं के साथ वह गृहप्रवेश के हवन के लिये
उपस्थित हुआ।
गृहप्रवेश की पूजा अलौकिक थी। तीनो लोकों के श्रेष्ठ स्त्री
पुरुष अपने सर्वश्रेष्ठ वैभव के साथ उपस्थित थे। वैदिक ऋचाओं के घोष से हवा गूँज
रही थी, आचमन से उड़ी जल की बूँदें वातावरण को निर्मल कर रही थीं।
पवित्र होम अग्नि से उठी लपटों में बची खुची कलुषता भस्म हो रही थी। इस अद्वितीय
अनुष्ठान के संपन्न होने पर अतिथियों को भोजन करा प्रसन्नता से गदगद माता पार्वती
ने ब्राह्मण रावण से दक्षिणा माँगने को कहा।
पुरुष अपने सर्वश्रेष्ठ वैभव के साथ उपस्थित थे। वैदिक ऋचाओं के घोष से हवा गूँज
रही थी, आचमन से उड़ी जल की बूँदें वातावरण को निर्मल कर रही थीं।
पवित्र होम अग्नि से उठी लपटों में बची खुची कलुषता भस्म हो रही थी। इस अद्वितीय
अनुष्ठान के संपन्न होने पर अतिथियों को भोजन करा प्रसन्नता से गदगद माता पार्वती
ने ब्राह्मण रावण से दक्षिणा माँगने को कहा।
“आप मेरी ही नहीं समस्त विश्व की माता है माँ
गौरा, आपसे दक्षिणा कैसी?” रावण विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन गया।
गौरा, आपसे दक्षिणा कैसी?” रावण विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन गया।
“नहीं विप्रवर, दक्षिणा के बिना
तो कोई अनुष्ठान पूरा नहीं होता और आपके आने से तो समस्त उत्सव की शोभा ही
अनिर्वचनीय हो उठी है, आप अपनी इच्छा से
कुछ भी माँग लें, भगवान शिव आपको
अवश्य प्रसन्न करेंगे।” पार्वती ने आग्रह
से कहा।
तो कोई अनुष्ठान पूरा नहीं होता और आपके आने से तो समस्त उत्सव की शोभा ही
अनिर्वचनीय हो उठी है, आप अपनी इच्छा से
कुछ भी माँग लें, भगवान शिव आपको
अवश्य प्रसन्न करेंगे।” पार्वती ने आग्रह
से कहा।
“आपको कष्ट नहीं देना चाहता माता, मैंने बिना माँगे ही बहुत कुछ पा लिया है। आपके
दर्शन से बढ़कर और क्या चाहिये मुझे ?” रावण ने और भी
विनम्रता से कहा।
दर्शन से बढ़कर और क्या चाहिये मुझे ?” रावण ने और भी
विनम्रता से कहा।
“यह आपका बड़प्पन है लंकापति, लेकिन अनुष्ठान की पूर्ति के लिये दक्षिणा
आवश्यक है आप इच्छानुसार जो भी चाहें माँग लें, हम आपका पूरा मान
रखेंगे।” पार्वती ने पुनः अनुरोध किया।
आवश्यक है आप इच्छानुसार जो भी चाहें माँग लें, हम आपका पूरा मान
रखेंगे।” पार्वती ने पुनः अनुरोध किया।
“संकोच होता है देवि।” रावण ने आँखें झुकाकर कहा।
“संकोच छोड़कर
यज्ञ की पूर्ति के विषय में सोचें विप्रवर।” पार्वती ने नीति को याद दिलाया।
यज्ञ की पूर्ति के विषय में सोचें विप्रवर।” पार्वती ने नीति को याद दिलाया।
जरा रुककर रावण ने कहा, “यदि सचमुच आप मेरी पूजा से प्रसन्न हैं, यदि सचमुच आप
मुझे संतुष्ट करना चाहती हैं और यदि सचमुच भगवान शिव सबकुछ दक्षिणा में देने की
सामर्थ्य रखते हैं तो आप यह सोने की नगरी मुझे दे दें।”
मुझे संतुष्ट करना चाहती हैं और यदि सचमुच भगवान शिव सबकुछ दक्षिणा में देने की
सामर्थ्य रखते हैं तो आप यह सोने की नगरी मुझे दे दें।”
पार्वती एक पल को भौंचक रह गईं ! लेकिन पास ही शांति से
बैठे भगवान शंकर ने अविचलित स्थिर वाणी में कहा- तथास्तु। रावण की खुशी का ठिकाना
न रहा। भगवान शिव के अनुरोध पर विश्वकर्मा ने यह नगर कैलाश पर्वत से उठाकर
श्रीलंका में स्थापित कर दिया।
बैठे भगवान शंकर ने अविचलित स्थिर वाणी में कहा- तथास्तु। रावण की खुशी का ठिकाना
न रहा। भगवान शिव के अनुरोध पर विश्वकर्मा ने यह नगर कैलाश पर्वत से उठाकर
श्रीलंका में स्थापित कर दिया।
तबसे ही रावण की लंका सोने की कहलाई और वह दैवी गुणों से
नीचे गिरते हुए सांसारिक लिप्सा में डूबता चला गया। पार्वती के मन में फिर किसी
महल की इच्छा का उदय नहीं हुआ। इस दान से इतना पुण्य एकत्रित हुआ कि उन्हें और
उनकी संतान को गुफा कंदराओं में कभी कोई कष्ट नहीं हुआ।
नीचे गिरते हुए सांसारिक लिप्सा में डूबता चला गया। पार्वती के मन में फिर किसी
महल की इच्छा का उदय नहीं हुआ। इस दान से इतना पुण्य एकत्रित हुआ कि उन्हें और
उनकी संतान को गुफा कंदराओं में कभी कोई कष्ट नहीं हुआ।
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