कौन था महासर्प अश्वसेन ? जिससे महाभारत युद्ध में कर्ण ने अर्जुन
के प्राणों की रक्षा की थी ?
के प्राणों की रक्षा की थी ?
महाभारत की लड़ाई
अच्छाई और बुराई के बीच लड़ी गई थी। किसी
भी युद्ध में दोनों खेमे के योद्धा चाहे जितनी शक्ति से लड़ें, पर यह सत्य है कि गया था कि चाहे जितने बाण छूटें, जीत पांडवों
की ही होगी। परंतु
अर्जुन और कर्ण के बीच युद्ध की कहानी हम जब भी सुनते हैं, हमारा मन पता नहीं क्यों हर बार यही कहता कि बेशक
पांडव पूरा युद्ध जीत जाएं, लेकिन
अर्जुन के साथ लड़ाई में कर्ण की जीत होनी चाहिए।
क्या विडंबना है ।
कर्ण कौरवों का सेनापति था। कर्ण कौरवों की ओर से लड़ रहा था। कर्ण दुर्योधन का
अहंकार था, लेकिन युद्ध को देखने, सुनने
और समझने वाला कोई भी व्यक्ति कर्ण के खिलाफ़ नहीं था।
परंतु यहाँ सवाल यह
उठता है कर्ण
में ऐसी क्या ख़ास बात थी?”
दोस्तों “बेशक
कर्ण दुर्योधन के खेमे में था, पर
कर्ण ने कभी अपनी नैतिकता नहीं छोड़ी। किसी खेमे में होना उसकी राजनैतिक मजबूरी
भले थी, पर उसने कभी अपनी ईमानदारी और नैतिकता से समझौता नहीं किया।
बाहरी शक्ति चाहे जितनी भी अनैतिक रही हो, कर्ण
भले उनके साथ खड़ा नज़र आता हो, पर वो
कभी अनैतिक नहीं हुआ। आज हम इस विडियो मे एक रोचक प्रसंग के माध्यम से कर्ण की नैतिक शक्ति के
बारे मे बताएँगे। हर
आदमी बुराई पर अच्छाई की जीत होते हुए देखने का अभिलाषी होता है। ज़ाहिर है, हमारे मन
में भी इस युद्ध का अंत बहुत पहले से तय हो
ये काल चक्र है...
अच्छाई और बुराई के बीच लड़ी गई थी। किसी
भी युद्ध में दोनों खेमे के योद्धा चाहे जितनी शक्ति से लड़ें, पर यह सत्य है कि गया था कि चाहे जितने बाण छूटें, जीत पांडवों
की ही होगी। परंतु
अर्जुन और कर्ण के बीच युद्ध की कहानी हम जब भी सुनते हैं, हमारा मन पता नहीं क्यों हर बार यही कहता कि बेशक
पांडव पूरा युद्ध जीत जाएं, लेकिन
अर्जुन के साथ लड़ाई में कर्ण की जीत होनी चाहिए।
क्या विडंबना है ।
कर्ण कौरवों का सेनापति था। कर्ण कौरवों की ओर से लड़ रहा था। कर्ण दुर्योधन का
अहंकार था, लेकिन युद्ध को देखने, सुनने
और समझने वाला कोई भी व्यक्ति कर्ण के खिलाफ़ नहीं था।
परंतु यहाँ सवाल यह
उठता है कर्ण
में ऐसी क्या ख़ास बात थी?”
दोस्तों “बेशक
कर्ण दुर्योधन के खेमे में था, पर
कर्ण ने कभी अपनी नैतिकता नहीं छोड़ी। किसी खेमे में होना उसकी राजनैतिक मजबूरी
भले थी, पर उसने कभी अपनी ईमानदारी और नैतिकता से समझौता नहीं किया।
बाहरी शक्ति चाहे जितनी भी अनैतिक रही हो, कर्ण
भले उनके साथ खड़ा नज़र आता हो, पर वो
कभी अनैतिक नहीं हुआ। आज हम इस विडियो मे एक रोचक प्रसंग के माध्यम से कर्ण की नैतिक शक्ति के
बारे मे बताएँगे। हर
आदमी बुराई पर अच्छाई की जीत होते हुए देखने का अभिलाषी होता है। ज़ाहिर है, हमारे मन
में भी इस युद्ध का अंत बहुत पहले से तय हो
ये काल चक्र है...
महाभारत का युद्ध चरम पर था। अर्जुन और
कर्ण दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे थे। सारा संसार जानता था कि सिर्फ कर्ण के
बाण ही अर्जुन के सीने को भेद सकते हैं, किसी और के नहीं। एक बार जब कर्ण और अर्जुन युद्ध में एकदम आमने-सामने हो गए तो
कर्ण के पास एक आसान मौका था जब वो अर्जुन को मार सकता था। हालांकि ऐसा मौका
बार-बार नहीं आया क्योंकि कृष्ण ने हर बार यह कोशिश की थी कि युद्ध के मैदान में
कभी अर्जुन और कर्ण सीधे-सीधे आमने-सामने न आ पाएं। लेकिन एक मौका ऐसा आ ही गया जब
दोनों योद्धा आमने-सामने थे
कर्ण ने अपनी
तरकश से एक बाण निकाला और अर्जुन पर छोड़ा। कृष्ण अर्जुन के सारथी थे, उन्होंने बाण के छूटते ही अर्जुन के रथ
को नीचे कर लिया। बाण अर्जुन के मुकुट से टकराया और अर्जुन का मुकुट गिर पड़ा। पर
वो बाण मुकुट से टकरा कर वापस कर्ण की तरकश में लौट आया।
बाण ने वापस आकर
कर्ण से कहा, "कर्ण, आप एक बार फिर मुझे ही अपनी प्रत्यंचा पर चढ़ाएं और अर्जुन पर
निशाना साधें। इस बार अर्जुन नहीं बचेगा।"
कर्ण ने हैरान
हो कर तरकस की ओर देखा। ये कौन बाण है, जो वापस लौट कर आया है और फिर आग्रह कर रहा है दुबारा अर्जुन पर
निशाना साधने का। कर्ण ने बाण से पूछा, "आप कौन हैं प्रभु और मेरी तरकश तक कैसे
पहुंचे?"
बाण अपने असली
स्वरूप में आ गया। उसने कर्ण को बताया, "मैं दरअसल बाण नहीं, बल्कि महासर्प अश्वसेन हूं। बहुत साल
पहले अर्जुन ने खांडव वन में प्रावास के दौरान आग लगा दी थी। वहां मैं अपने पूरे
परिवार के साथ रहता था। मेरा पूरा परिवार उस आग में जल गया था लेकिन मैं बच गया।
तब से मैंने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा कर ली।"
कर्ण की तरकश
में बाण बन कर घुसे अश्वसेन ने कर्ण को बताया कि आपके सिवा किसी और का बाण अर्जुन
तक पहुंच ही नहीं सकता। इसीलिए मैं छुप कर आपकी तरकश में बाण बन कर चला आया। आप जैसे ही मुझे प्रत्यंचा पर कसेंगे, मैं इस बार अर्जुन से जाकर लिपट जाऊंगा
और उसे डंस लूंगा। भले मैं मारा जाऊंगा, पर मेरा बदला पूरा होगा।
कर्ण ने अश्वसेन
सर्प की पूरी बात सुनी। फिर कहा, “महासर्प देवता, मैं अर्जुन को मारना तो चाहता हूं, पर मैं अनैतिक नहीं हो सकता। उसे मैं
छल से नहीं मार सकता। मैं किसी छल का सहारा इस कार्य के लिए नहीं ले सकता। ये
युद्ध है। यहां चाहे जितने छल-प्रपंच हों, लेकिन कर्ण इसे पुरुषार्थ से ही जीतेगा
या हारेगा। यह सत्य है कि इस युद्ध में मैं दुर्योधन के पक्ष में खड़ा हूं, फिर भी मैं अपनी नैतिकता नहीं
छोड़ूंगा। मैं जानता हूं कि आपने लंबा इंतज़ार किया है। पर मुझसे यह संभव नहीं।”
अश्वसेन ने कर्ण
की पूरी बात सुनी। फिर उसने दोनों हाथ जोड़ कर कहा, “कर्ण, युद्ध की बाजी चाहे जिसके पक्ष में हो, पर संसार हमेशा आपकी इस नैतिकता को याद
रखेगा। अब आप हार और जीत से ऊपर हैं। कुछ लोग इसे भक्ति कह सकते हैं, पर नैतिकता के साथ खड़ा होना भक्ति
नहीं, शक्ति का प्रतीक होता है।
कर्ण दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे थे। सारा संसार जानता था कि सिर्फ कर्ण के
बाण ही अर्जुन के सीने को भेद सकते हैं, किसी और के नहीं। एक बार जब कर्ण और अर्जुन युद्ध में एकदम आमने-सामने हो गए तो
कर्ण के पास एक आसान मौका था जब वो अर्जुन को मार सकता था। हालांकि ऐसा मौका
बार-बार नहीं आया क्योंकि कृष्ण ने हर बार यह कोशिश की थी कि युद्ध के मैदान में
कभी अर्जुन और कर्ण सीधे-सीधे आमने-सामने न आ पाएं। लेकिन एक मौका ऐसा आ ही गया जब
दोनों योद्धा आमने-सामने थे
कर्ण ने अपनी
तरकश से एक बाण निकाला और अर्जुन पर छोड़ा। कृष्ण अर्जुन के सारथी थे, उन्होंने बाण के छूटते ही अर्जुन के रथ
को नीचे कर लिया। बाण अर्जुन के मुकुट से टकराया और अर्जुन का मुकुट गिर पड़ा। पर
वो बाण मुकुट से टकरा कर वापस कर्ण की तरकश में लौट आया।
बाण ने वापस आकर
कर्ण से कहा, "कर्ण, आप एक बार फिर मुझे ही अपनी प्रत्यंचा पर चढ़ाएं और अर्जुन पर
निशाना साधें। इस बार अर्जुन नहीं बचेगा।"
कर्ण ने हैरान
हो कर तरकस की ओर देखा। ये कौन बाण है, जो वापस लौट कर आया है और फिर आग्रह कर रहा है दुबारा अर्जुन पर
निशाना साधने का। कर्ण ने बाण से पूछा, "आप कौन हैं प्रभु और मेरी तरकश तक कैसे
पहुंचे?"
बाण अपने असली
स्वरूप में आ गया। उसने कर्ण को बताया, "मैं दरअसल बाण नहीं, बल्कि महासर्प अश्वसेन हूं। बहुत साल
पहले अर्जुन ने खांडव वन में प्रावास के दौरान आग लगा दी थी। वहां मैं अपने पूरे
परिवार के साथ रहता था। मेरा पूरा परिवार उस आग में जल गया था लेकिन मैं बच गया।
तब से मैंने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा कर ली।"
कर्ण की तरकश
में बाण बन कर घुसे अश्वसेन ने कर्ण को बताया कि आपके सिवा किसी और का बाण अर्जुन
तक पहुंच ही नहीं सकता। इसीलिए मैं छुप कर आपकी तरकश में बाण बन कर चला आया। आप जैसे ही मुझे प्रत्यंचा पर कसेंगे, मैं इस बार अर्जुन से जाकर लिपट जाऊंगा
और उसे डंस लूंगा। भले मैं मारा जाऊंगा, पर मेरा बदला पूरा होगा।
कर्ण ने अश्वसेन
सर्प की पूरी बात सुनी। फिर कहा, “महासर्प देवता, मैं अर्जुन को मारना तो चाहता हूं, पर मैं अनैतिक नहीं हो सकता। उसे मैं
छल से नहीं मार सकता। मैं किसी छल का सहारा इस कार्य के लिए नहीं ले सकता। ये
युद्ध है। यहां चाहे जितने छल-प्रपंच हों, लेकिन कर्ण इसे पुरुषार्थ से ही जीतेगा
या हारेगा। यह सत्य है कि इस युद्ध में मैं दुर्योधन के पक्ष में खड़ा हूं, फिर भी मैं अपनी नैतिकता नहीं
छोड़ूंगा। मैं जानता हूं कि आपने लंबा इंतज़ार किया है। पर मुझसे यह संभव नहीं।”
अश्वसेन ने कर्ण
की पूरी बात सुनी। फिर उसने दोनों हाथ जोड़ कर कहा, “कर्ण, युद्ध की बाजी चाहे जिसके पक्ष में हो, पर संसार हमेशा आपकी इस नैतिकता को याद
रखेगा। अब आप हार और जीत से ऊपर हैं। कुछ लोग इसे भक्ति कह सकते हैं, पर नैतिकता के साथ खड़ा होना भक्ति
नहीं, शक्ति का प्रतीक होता है।
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