Wednesday, 18 July 2018

अघोरी साधुओं की मायावी व रहस्यमयी दुनिया की के अनजाने तथ्य || Kaal Chakra



अघोरी साधुओं की मायावी व रहस्यमयी दुनिया
की के अनजाने तथ्य
माना जाता है कि शमशान जिन्दगी का आखिरी पड़ाव होता है जिसके बाद
दुनिया की सारी चीज़े बेमतलब हो जाती है। लेकिन इसी श्मशान में मुर्दों के बीच कुछ
जिन्दगियाँ भी रहती है जो मुर्दों में ही जिन्दगी तलाशती है। जब पूरी दुनिया सो
जाती है तो ये अपनी साधना में जागते है। इनकी अपनी खुद की एक अलग ही
 मायावी दुनिया है जहाँ इनके लिये इंसानी खोपड़ी पायला होता है और मूर्दा निवाला। श्‍मशान बिस्‍तर बन जाती है और चिता
चादर। दोस्तों आज हम ऐसे लोगों की जिंदगी से पर्दा उठाएंगे जिनकी खुद की जिंदगी
सदियों से रहस्‍य के पर्दे में है। हम बात कर रहे हैं श्‍मशान की साधाना में
इंसानी चोलों को उतारकर फेंक देने वाले
अघोरियों की। अघोरी साधू हमेशा से लोगों की जिज्ञासा का विषय रहे हैं इसीलिए आज हम इस विडियो
के माध्यम से अघोरियों के बारे में सम्पूर्ण तथ्य लेकर आये है. अधोरी कौन होते है
, क्या करते है, कैसे रहते है, उनकी साधना के क्या नियम है ?
ये काल चक्र है....
हिन्दू धर्म में एक शैव संप्रदायहै जो शिव साधकसे सम्बंधित है। इसी
सम्प्रदाय में साधना की एक रहस्यमयी शाखा है
अघोरपंथजिसका पालन करने वालों को अघोरी साधू कहते हैं। अघोरियों का इतिहास करीब 1000 वर्ष पुराना है। लेकिन आज इनकी संख्या काफी कम हो
गई है। अघोरियों को इस पृथ्वी पर भगवान शिव का जीवित रूप भी माना जाता है क्योंकि
शिवजी के पांच रूपों में से एक रूप अघोर रूप है। अघोरियों का जीवन जितना कठिन है
, उतना ही रहस्यमयी
भी। उनकी अपनी शैली है
, अपना विधान है और अपनी अलग साधना विधियां हैं, जो कि सबसे ज्यादा
रहस्यमयी होती है। अघोरियों की दुनिया ही नहीं
,
उनकी हर बात निराली है।
आम इंसानों से दूरी बनाकर रहने वाले ये साधु
भांग-धतूरे के नशे में रहते हैं। इन्हें जीवन यापन करने के लिए किसी सुख-सुविधा की
जरूरत नहीं होती. अघोरियों को डरावना या खतरनाक साधु भी समझा जाता है लेकिन अघोर
का अर्थ है अ घोर यानी जो घोर नहीं हो
, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। अघोरी हर चीज में समान भाव रखते हैं। ब्रह्माण्ड
में व्याप्त समस्त तत्वों में सम भाव रखना
, निर्मल तथा घृणित सभी वस्तुओं में ब्रह्म की
अनुभूति करना ही इनके साधन पद्धति का मुख्य उद्देश्य हैं।
वे सड़ते जीव के मांस को भी उतना ही स्वाद लेकर खाते हैं, जितना स्वादिष्ट
पकवानों को स्वाद लेकर खाया जाता है। इस चराचर जगत में व्याप्त प्रत्येक वास्तु
फिर वह जीवित हो या मृत
, पवित्र हो या अपवित्र, सड़ा हो या पुष्ट सभी में ब्रह्म तत्व या ईश्वर का अनुभव करना पड़ता
हैं
, प्रत्येक वस्तु ईश्वर द्वारा ही निर्मित हैं। 

दुनिया में सिर्फ चार श्मशान घाट ही ऐसे हैं जहां
तंत्र क्रियाओं का परिणाम बहुत जल्दी मिलता है। अघोरपंथ के अघोरी साधु इन चार
स्थानों पर ही शव और श्मशान साधना करते हैं। ये हैं तारापीठ का श्मशान (पश्चिम
बंगाल)
, कामाख्या पीठ (असम) काश्मशान, त्र्र्यम्बकेश्वर (नासिक) और उज्जैन (मध्य प्रदेश) का श्मशान। चार
स्थानों के अलावा वे शक्तिपीठों
, बगलामुखी, काली और भैरव के मुख्य स्थानों के पास के श्मशान में साधना करते हैं।
दोस्तों हजारों वर्षों से चली आ रही परंपराओं के
कारण हिन्दू धर्म में कई ऐसी अंतरविरोधी और विरोधाभाषी विचारधाराओं का समावेश हो
चला है
, जो स्थानीय संस्कृति और परंपरा की देन है। लेकिन उन सभी विचारधाराओं
का सम्मान करना भी जरूरी है
, क्योंकि धर्म का किसी तरह की विचारधारा से संबंध नहीं, बल्कि सिर्फ और
सिर्फ
ब्रह्म ज्ञानसे संबंध है.


अघोरी साधुओं की मायावी व रहस्यमयी दुनिया की के अनजाने तथ्य || Kaal Chakra



अघोरी साधुओं की मायावी व रहस्यमयी दुनिया
की के अनजाने तथ्य
माना जाता है कि शमशान जिन्दगी का आखिरी पड़ाव होता है जिसके बाद
दुनिया की सारी चीज़े बेमतलब हो जाती है। लेकिन इसी श्मशान में मुर्दों के बीच कुछ
जिन्दगियाँ भी रहती है जो मुर्दों में ही जिन्दगी तलाशती है। जब पूरी दुनिया सो
जाती है तो ये अपनी साधना में जागते है। इनकी अपनी खुद की एक अलग ही
 मायावी दुनिया है जहाँ इनके लिये इंसानी खोपड़ी पायला होता है और मूर्दा निवाला। श्‍मशान बिस्‍तर बन जाती है और चिता
चादर। दोस्तों आज हम ऐसे लोगों की जिंदगी से पर्दा उठाएंगे जिनकी खुद की जिंदगी
सदियों से रहस्‍य के पर्दे में है। हम बात कर रहे हैं श्‍मशान की साधाना में
इंसानी चोलों को उतारकर फेंक देने वाले
अघोरियों की। अघोरी साधू हमेशा से लोगों की जिज्ञासा का विषय रहे हैं इसीलिए आज हम इस विडियो
के माध्यम से अघोरियों के बारे में सम्पूर्ण तथ्य लेकर आये है. अधोरी कौन होते है
, क्या करते है, कैसे रहते है, उनकी साधना के क्या नियम है ?
ये काल चक्र है....
हिन्दू धर्म में एक शैव संप्रदायहै जो शिव साधकसे सम्बंधित है। इसी
सम्प्रदाय में साधना की एक रहस्यमयी शाखा है
अघोरपंथजिसका पालन करने वालों को अघोरी साधू कहते हैं। अघोरियों का इतिहास करीब 1000 वर्ष पुराना है। लेकिन आज इनकी संख्या काफी कम हो
गई है। अघोरियों को इस पृथ्वी पर भगवान शिव का जीवित रूप भी माना जाता है क्योंकि
शिवजी के पांच रूपों में से एक रूप अघोर रूप है। अघोरियों का जीवन जितना कठिन है
, उतना ही रहस्यमयी
भी। उनकी अपनी शैली है
, अपना विधान है और अपनी अलग साधना विधियां हैं, जो कि सबसे ज्यादा
रहस्यमयी होती है। अघोरियों की दुनिया ही नहीं
,
उनकी हर बात निराली है।
आम इंसानों से दूरी बनाकर रहने वाले ये साधु
भांग-धतूरे के नशे में रहते हैं। इन्हें जीवन यापन करने के लिए किसी सुख-सुविधा की
जरूरत नहीं होती. अघोरियों को डरावना या खतरनाक साधु भी समझा जाता है लेकिन अघोर
का अर्थ है अ घोर यानी जो घोर नहीं हो
, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। अघोरी हर चीज में समान भाव रखते हैं। ब्रह्माण्ड
में व्याप्त समस्त तत्वों में सम भाव रखना
, निर्मल तथा घृणित सभी वस्तुओं में ब्रह्म की
अनुभूति करना ही इनके साधन पद्धति का मुख्य उद्देश्य हैं।
वे सड़ते जीव के मांस को भी उतना ही स्वाद लेकर खाते हैं, जितना स्वादिष्ट
पकवानों को स्वाद लेकर खाया जाता है। इस चराचर जगत में व्याप्त प्रत्येक वास्तु
फिर वह जीवित हो या मृत
, पवित्र हो या अपवित्र, सड़ा हो या पुष्ट सभी में ब्रह्म तत्व या ईश्वर का अनुभव करना पड़ता
हैं
, प्रत्येक वस्तु ईश्वर द्वारा ही निर्मित हैं। 

दुनिया में सिर्फ चार श्मशान घाट ही ऐसे हैं जहां
तंत्र क्रियाओं का परिणाम बहुत जल्दी मिलता है। अघोरपंथ के अघोरी साधु इन चार
स्थानों पर ही शव और श्मशान साधना करते हैं। ये हैं तारापीठ का श्मशान (पश्चिम
बंगाल)
, कामाख्या पीठ (असम) काश्मशान, त्र्र्यम्बकेश्वर (नासिक) और उज्जैन (मध्य प्रदेश) का श्मशान। चार
स्थानों के अलावा वे शक्तिपीठों
, बगलामुखी, काली और भैरव के मुख्य स्थानों के पास के श्मशान में साधना करते हैं।
दोस्तों हजारों वर्षों से चली आ रही परंपराओं के
कारण हिन्दू धर्म में कई ऐसी अंतरविरोधी और विरोधाभाषी विचारधाराओं का समावेश हो
चला है
, जो स्थानीय संस्कृति और परंपरा की देन है। लेकिन उन सभी विचारधाराओं
का सम्मान करना भी जरूरी है
, क्योंकि धर्म का किसी तरह की विचारधारा से संबंध नहीं, बल्कि सिर्फ और
सिर्फ
ब्रह्म ज्ञानसे संबंध है.


Monday, 9 July 2018

धरती पर बैकुंठ की यात्रा कीजिए चलिए बद्रीनाथ... Kaal Chakra



     चरधाम यात्रा — बद्रीनाथ
हिन्दू धर्म के समस्त मूल्यों
का निकटतम अनुभव ही चार धाम की यात्रा है। एक ऐसी यात्रा जहाँ भारतीयता के गौरव
कलश आकाश को छूते हैं
; जहाँ की
प्राकृतिक वादियों में जीवन के संताप से उत्तप्त मन चिर विश्राम का साक्षी बनता
है। उत्तर मे बद्रीनाथ दक्षिण मे रामेश्वरम पूरब मे जगनाथ पूरी और पशिम मे
द्वारका-- इनमे मानवीय प्रेम और श्रद्धा के ऐसे प्रदीप्त शिखर हैं
; जहाँ से शांति और धर्म के नित नए झरने उदित होते हैं और जहाँ
आशा और विश्वास के नए पुष्प उगते हैं। चारधाम की स्थापना आद्य गुरु शंकराचार्य ने
की
,
उद्देश्य था उत्तर, दक्षिण, पूर्व
और पश्चिम चार दिशाओं में स्थित इन धामों की यात्रा कर मनुष्य भारत की सांस्कृतिक
विरासत को जाने-समझें। आज प्रत्येक हिन्दू की यह इच्छा रहती है कि वह अपने जीवन
काल में कम से कम एक बार अवश्य चार धाम की यात्रा का सुख भोगे। यही वजह है कि दो
वर्ष पूर्व उत्तराखंड में आई भयानक बाढ़ की विभीषिका के बाद भी यहाँ श्रद्धालुओं
की संख्या में कोई कमी नहीं आई है। लोग सपरिवार इन यात्राओं में शामिल होकर आनंद
और उत्सव की अनुभूति करते हैं। दोस्त आज हम इस विडियो के माध्यम से श्रीबद्रीनाथ
धाम की यात्रा करेंगे। और इस धाम से जुडी पौराणिक कथा सुनेंगे.  
ये काल चक्र है....
उत्तराखंड, उत्तर भारत में स्थित एक बहुत ही खूबसूरत और शांत पर्यटन केंद्र है। इस जगह का
शुमार देश की उन चुनिन्दा जगहों में है जो अपनी सुन्दरता के चलते दुनिया भर के पर्यटकों
को अपनी ओर आकर्षित करती है।
  'देवताओं की भूमि' के रूप में जाना जाने वाला उत्तराखंड अपने शांत वातावरण, मनमोहक दृश्यों और खूबसूरती के कारण विश्व
विख्यात है। यही पर अलखनंदा नदी के तेज प्रवाह के किनारे बदरी नारायण मंदिर जिसे
बद्रीनाथ धाम भी कहते हैं स्थित है. भगवान विष्णु का यह मंदिर
 समुद्र तल से 3133 मीटर की ऊंचाई पर है.
मंदिर तीन भागों में विभाजित है
,
गर्भगृह, दर्शनमण्डप और सभामण्डप। मंदिर परिसर में 15 मूर्तियां
है
, इनमें सब से प्रमुख है भगवान विष्णु की एक मीटर ऊंची काले पत्थर की प्रतिमा.
यहां भगवान विष्णु ध्यान मग्न मुद्रा में सुशोभित है। जिसके दाहिने ओर कुबेर
लक्ष्मी और नारायण की मूर्तियां है।
 वेदिक भजनों
और घंटियों की आवाज गूंजने के साथ मंदिर में स्वर्गीय वातावरण पैदा होता है। पास
के ही तप्त कुंड में डुबकी के बाद तीर्थयात्री पूजा समारोह में शामिल हो सकते हैं।
सुबह की पूजा का क्रम ऐसा हैं
सबसे पहले महाआरती, अभिषेक, गीतापाठ और भागवत मार्ग, और शाम पूजा गीता गोविंद और आरती की जाती हैं।
बद्रीनाथ धाम से जुडी अनेक कथाएं हमारे
धर्म ग्रन्थों में मौजूद है इन्ही में से एक सबसे परचलित कथा के अनुसार एक बार
भगवन विष्णु इस पृथ्वी पर तपस्य के लिए एकांत स्थान ढूढ़ते हुए यहाँ अलकनंदा नदी के
तट पर पहुंचे उन्हें यहाँ का प्राकृतिक सुन्दर्य इस कदर भाया की उन्होंने यही पर
तपस्या करने का निश्चय किया. भगवन विष्णु ध्यान मग्न हो गए. भगवान विष्णु योगध्यान
मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में
पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा
और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बेर
(बदरी) के वृक्ष का रूप
ले लिया और समस्त हिम को
अपने ऊपर सहने
लगीं.  
 माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से
बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप
पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी
के तप को देख कर कहा कि हे देवी
! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ
पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बदरी वृक्ष के रूप में की है सो आज से
मुझे बदरी के नाथ
-बदरीनाथ के नाम से जाना जायेगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बदरीनाथ पड़ा। जहाँ भगवान बदरीनाथ ने तप किया था, वही पवित्र-स्थल आज तप्त-कुण्ड के नाम से विश्व-विख्यात है और कहा जाता है की उनके
तप के रूप में आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है।
ऋषिकेश से बद्रीनाथ धाम की दूरी 295 किलोमीटर की है। साथ ही सर्दियों में बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद रहते हैं और
पूरा क्षेत्र निर्जन रहता है इसलिये सर्दियों के समय बद्रीनाथ की यात्रा नहीं की
जाती मई महीने से लेकर नवबंर तक बद्रीनाथ धाम की यात्रा किये जाते हैं।
आज का श्लोक ज्ञान:
रविश्चन्द्रो घना वृक्षा नदी गावश्च
सज्जनाः।
एते परोपकाराय युगे दैवेन निर्मिता ॥
 भावार्थ :
सूर्य, चन्द्र, बादल, नदी, गाय और सज्जन - ये हरेक युग में ब्रह्मा ने परोपकार के लिए निर्माण किये हैं.



 



Thursday, 5 July 2018

क्यूँ लेना पड़ा भगवान विष्णु को एक कछुए का अवतार || समुन्द्र मंथन || Kaal...



कूर्म अवतार समुद्र मंथन
देवासुर संग्राम संयुक्त कथा
श्रीमद्भागवत के अनुसार
नारायण जो कि विष्णु के वास्तविक स्वरूप हैं को ना मिटाया जा सकता है और ना ही
इनका कभी अंत किया जा सकता है। नारायण ही समय-समय पर अवतार लेकर धरती पर प्रकट
होते हैं और दुष्टों का सर्वनाश करते हैं। उल्लेखनीय है कि भले ही नारायण ने कई
अवतार लिए हों लेकिन सामान्य तौर पर हम सिर्फ उनके 10 अवतारों से ही परिचित हैं।
चलिए आज हम आपको नारायण के एक ऐसे अवतार के बारे मे बताएँगे जब उन्हे कूर्म यानि
कछुए के रूप मे अवतरित होना पड़ा। इस अवतार की कड़ी जुड़ती है समुद्रमन्थन से जिसका
वर्णन भगवत पुराण महाभारत और विष्णु पुराण मे मिलता है। यह कथा समुद्र से अमृत के
प्याले से जुड़ी है जिसे पीने के लिए देवताओं और असुरों में विवाद उत्पन्न हुआ और
फिर देवासुर संग्राम छिड़ गया। समुद्र मंथन मे अमृत के अलावा और भी बहुत कुछ निकला
उन वसतुओं का क्या हुआ
? दोस्तों आज
इस विडियो मे हम समुद्र मंथन और कूर्म अवतार की सम्पूर्ण कथा का वर्णन करेंगे।
ये काल चक्र है...
राजा बलि के राज्य में दैत्य, असुर और दानव अति बलशाली हो गए थे। उन्हें शुक्राचार्य जैसे
महान गुरु की शक्ति प्राप्त थी। इसी बीच दुर्वासा ऋषि के शाप से देवराज इन्द्र
शक्तिहीन हो गये थे। दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर फ़ेल गया था। इन्द्र
सहित देवतागण उससे भयभीत रहते थे। इस स्थिति के निवारण का उपाय केवल बैकुण्ठनाथ
विष्णु ही बता सकते थे
, इसीलिए
ब्रह्मा जी के साथ समस्त देवता भगवान नारायण के पास पहुचे। उनकी स्तुति करके
उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। तब भगवान मधुर वाणी में बोले कि-- इस
समय तुम लोगों के लिये संकट काल है। दैत्यों
, असुरों एवं दानवों का अभ्युत्थान हो रहा है और तुम लोगों की
अवनति हो रही है। किन्तु संकट काल को मैत्रीपूर्ण भाव से व्यतीत कर देना चाहिये।
तुम दैत्यों से मित्रता कर लो और क्षीर सागर को मथ कर उसमें से अमृत निकाल कर पान
कर लो। दैत्यों की सहायता से यह कार्य सुगमता से हो जायेगा। इस कार्य के लिये उनकी
हर शर्त मान लो
, अमृत पीकर तुम अमर हो
जाओगे और तुममें दैत्यों को मारने का सामर्थ्य आ जायेगा।
भगवान के आदेशानुसार इन्द्र
ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात राजा बलि को बताया। दैत्यराज बलि ने देवराज
इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। मन्दराचल पर्वत को
 मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया। तब
स्वयं भगवान श्री विष्णु कूर्म यानि कछुए का अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने
पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये और वासुकी नाग को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को
हर लिया। देवता वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले
दैत्य
,
असुर, दानवादि
ने सोचा कि वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा।
उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं
, हम मुँह की ओर का स्थान लेंगे। तब देवताओं ने वासुकी नाग के
पूँछ की ओर का स्थान ले लिया।
समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और
भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। हे राजन!
समुद्र मंथन से सबसे पहले हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा
दैत्य जलने लगे चरो ओर हाहाकार मच गया। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना
की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं
उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये
महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं।
विष को भगवान शिव के द्वारा
पान कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न कामधेनु गाय
निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने
रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के
पश्चात् कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर कल्पवृक्ष
निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर
समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर
लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर
एक के पश्चात एक चन्द्रमा
, पारिजात
वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट
हुये।" धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस
में ही लड़ने लगे। तब देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप
धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर
दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या
, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब
दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा
भूल कर उसी सुन्दरी की ओर एकटक देखने लगे।
दैत्य बोले, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो? लगता है कि हमारे झगड़े को देखकर उसका निबटारा करने के लिये
ही हम पर कृपा कटाक्ष कर रही हो। आओ शुभगे! तुम्हारा स्वागत है। हमें अपने सुन्दर
कर कमलों से यह अमृतपान कराओ। इस पर विश्वमोहिनी रूपी विष्णु ने कहा
, "हे देवताओं और दानवों! आप दोनों ही महर्षि कश्यप जी के
पुत्र होने के कारण भाई-भाई हो फिर भी परस्पर लड़ते हो। विश्वमोहिनी के ऐसे नीति
कुशल वचन सुन कर उन कामान्ध दैत्यो
, दानवों और असुरों को उस पर और भी विश्वास हो गया। वे बोले, "सुन्दरी! हमे तुम पर पूर्ण विश्वास है। तुम जिस प्रकार
बाँटोगी हम उसी प्रकार अमृतपान कर लेंगे। तुम ये घट ले लो और हम सभी में अमृत
वितरण करो।" विश्वमोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और दैत्यों को अलग-अलग
पंक्तियो में बैठने के लिये कहा। विश्वमोहिनी रूप को देख कर असुर इतना मोधोश हो गए
की उन्हे पता ही नहीं चला की वो अमृत पी रहे हैं या कुछ और भगवान ने सारा अमृत देवताओं
को पीला दिया। इसी बीच भगवान की इस चाल को राहु नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का
रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब
अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये राहु
दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन
से अलग कर दिया।
इस तरह देवताओं को अमृत
पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप हो गये। उनके लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी
समाप्त हो गई। वे अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। भयंकर देवासुर
संग्राम आरम्भ हो गया जिसमें देवराज इन्द्र ने असुरो को परास्त कर अपना इन्द्रलोक
वापस ले लिया।




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कलयुग में नारायणी सेना की वापसी संभव है ? The Untold Story of Krishna’s ...

क्या महाभारत युद्ध में नारायणी सेना का अंत हो गया ... ? या फिर आज भी वो कहीं अस्तित्व में है ... ? नारायणी सेना — वो ...