Thursday, 5 July 2018

क्यूँ लेना पड़ा भगवान विष्णु को एक कछुए का अवतार || समुन्द्र मंथन || Kaal...



कूर्म अवतार समुद्र मंथन
देवासुर संग्राम संयुक्त कथा
श्रीमद्भागवत के अनुसार
नारायण जो कि विष्णु के वास्तविक स्वरूप हैं को ना मिटाया जा सकता है और ना ही
इनका कभी अंत किया जा सकता है। नारायण ही समय-समय पर अवतार लेकर धरती पर प्रकट
होते हैं और दुष्टों का सर्वनाश करते हैं। उल्लेखनीय है कि भले ही नारायण ने कई
अवतार लिए हों लेकिन सामान्य तौर पर हम सिर्फ उनके 10 अवतारों से ही परिचित हैं।
चलिए आज हम आपको नारायण के एक ऐसे अवतार के बारे मे बताएँगे जब उन्हे कूर्म यानि
कछुए के रूप मे अवतरित होना पड़ा। इस अवतार की कड़ी जुड़ती है समुद्रमन्थन से जिसका
वर्णन भगवत पुराण महाभारत और विष्णु पुराण मे मिलता है। यह कथा समुद्र से अमृत के
प्याले से जुड़ी है जिसे पीने के लिए देवताओं और असुरों में विवाद उत्पन्न हुआ और
फिर देवासुर संग्राम छिड़ गया। समुद्र मंथन मे अमृत के अलावा और भी बहुत कुछ निकला
उन वसतुओं का क्या हुआ
? दोस्तों आज
इस विडियो मे हम समुद्र मंथन और कूर्म अवतार की सम्पूर्ण कथा का वर्णन करेंगे।
ये काल चक्र है...
राजा बलि के राज्य में दैत्य, असुर और दानव अति बलशाली हो गए थे। उन्हें शुक्राचार्य जैसे
महान गुरु की शक्ति प्राप्त थी। इसी बीच दुर्वासा ऋषि के शाप से देवराज इन्द्र
शक्तिहीन हो गये थे। दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर फ़ेल गया था। इन्द्र
सहित देवतागण उससे भयभीत रहते थे। इस स्थिति के निवारण का उपाय केवल बैकुण्ठनाथ
विष्णु ही बता सकते थे
, इसीलिए
ब्रह्मा जी के साथ समस्त देवता भगवान नारायण के पास पहुचे। उनकी स्तुति करके
उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। तब भगवान मधुर वाणी में बोले कि-- इस
समय तुम लोगों के लिये संकट काल है। दैत्यों
, असुरों एवं दानवों का अभ्युत्थान हो रहा है और तुम लोगों की
अवनति हो रही है। किन्तु संकट काल को मैत्रीपूर्ण भाव से व्यतीत कर देना चाहिये।
तुम दैत्यों से मित्रता कर लो और क्षीर सागर को मथ कर उसमें से अमृत निकाल कर पान
कर लो। दैत्यों की सहायता से यह कार्य सुगमता से हो जायेगा। इस कार्य के लिये उनकी
हर शर्त मान लो
, अमृत पीकर तुम अमर हो
जाओगे और तुममें दैत्यों को मारने का सामर्थ्य आ जायेगा।
भगवान के आदेशानुसार इन्द्र
ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात राजा बलि को बताया। दैत्यराज बलि ने देवराज
इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। मन्दराचल पर्वत को
 मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया। तब
स्वयं भगवान श्री विष्णु कूर्म यानि कछुए का अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने
पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये और वासुकी नाग को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को
हर लिया। देवता वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले
दैत्य
,
असुर, दानवादि
ने सोचा कि वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा।
उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं
, हम मुँह की ओर का स्थान लेंगे। तब देवताओं ने वासुकी नाग के
पूँछ की ओर का स्थान ले लिया।
समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और
भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। हे राजन!
समुद्र मंथन से सबसे पहले हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा
दैत्य जलने लगे चरो ओर हाहाकार मच गया। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना
की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं
उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये
महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं।
विष को भगवान शिव के द्वारा
पान कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न कामधेनु गाय
निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने
रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के
पश्चात् कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर कल्पवृक्ष
निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर
समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर
लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर
एक के पश्चात एक चन्द्रमा
, पारिजात
वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट
हुये।" धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस
में ही लड़ने लगे। तब देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप
धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर
दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या
, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब
दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा
भूल कर उसी सुन्दरी की ओर एकटक देखने लगे।
दैत्य बोले, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो? लगता है कि हमारे झगड़े को देखकर उसका निबटारा करने के लिये
ही हम पर कृपा कटाक्ष कर रही हो। आओ शुभगे! तुम्हारा स्वागत है। हमें अपने सुन्दर
कर कमलों से यह अमृतपान कराओ। इस पर विश्वमोहिनी रूपी विष्णु ने कहा
, "हे देवताओं और दानवों! आप दोनों ही महर्षि कश्यप जी के
पुत्र होने के कारण भाई-भाई हो फिर भी परस्पर लड़ते हो। विश्वमोहिनी के ऐसे नीति
कुशल वचन सुन कर उन कामान्ध दैत्यो
, दानवों और असुरों को उस पर और भी विश्वास हो गया। वे बोले, "सुन्दरी! हमे तुम पर पूर्ण विश्वास है। तुम जिस प्रकार
बाँटोगी हम उसी प्रकार अमृतपान कर लेंगे। तुम ये घट ले लो और हम सभी में अमृत
वितरण करो।" विश्वमोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और दैत्यों को अलग-अलग
पंक्तियो में बैठने के लिये कहा। विश्वमोहिनी रूप को देख कर असुर इतना मोधोश हो गए
की उन्हे पता ही नहीं चला की वो अमृत पी रहे हैं या कुछ और भगवान ने सारा अमृत देवताओं
को पीला दिया। इसी बीच भगवान की इस चाल को राहु नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का
रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब
अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये राहु
दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन
से अलग कर दिया।
इस तरह देवताओं को अमृत
पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप हो गये। उनके लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी
समाप्त हो गई। वे अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। भयंकर देवासुर
संग्राम आरम्भ हो गया जिसमें देवराज इन्द्र ने असुरो को परास्त कर अपना इन्द्रलोक
वापस ले लिया।




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