जूआ खेलने वाले युधिष्ठिर को धर्मराज कहने का औचित्य क्या
है?
युधिष्ठिर स्वयं का धर्म जिस तरह चाहते, पालते लेकिन उनके
पालन करने से बाकी लोग व्यथित हो रहे थे, उसका क्या. मेरे
धर्म पालन से मुझे लाभ या नुकसान हौवे तो ठीक, सारे संसार को
उसका परिणाम भुगतना पड़े तो धर्म नही हुआ, लाखों लोग कट गए
क्योंकि तथाकथित धर्मराज स्वयं का धर्म का निर्वाह कर रहे थे. इस भूल को हम आज भी
ढोएं जा रहे हैं, धर्म पूर्णतः वैयक्तिक है, मेरे धर्म का
किसी दूसरे के धर्म से कोई लेना देना नही, मेरे धर्म की
छाया भी दूसरे पर ना पड़े तो ही धर्म, धर्म है, अन्यथा केवल ढोंग
है.दोस्तों आज
विचार करेंगे इस प्रश्न पर की क्या जूआ खेलने वाले युधिष्ठिर को धर्मराज कहना सही
है ??
हमें उस काल की परिस्थितियों को भी जानना होगा, मनुष्य की चेतना
का शैशव काल थाउस समय धर्म की
परिभाषा, जो स्थापित
मानदंडों पर कसी गयी थी, उसे ही श्रेष्ठ
माना गया था. भगवान श्रीराम का युग बीत चुका था किंतु उनके द्वारा संयम और मर्यादा
के कठोर मानदंड स्थापित किये गए थे, इन्ही मानदंडों को धर्म की अंतिम परिभाषा माना जाता था, इन मानदंडों में
पिता या पिता समकक्ष किसी भी व्यक्ति की आज्ञा का अक्षरशः पालन ही धर्म माना गया
था चाहे वो आज्ञा कितनी भी गलत और नीतिविरुद्ध हो.
धृतराष्ट्र युधिष्ठिर के पिता तो नही पिता के बड़े भाई थे और
इसी वजह से पितृतुल्य थे और उनकी आज्ञा का विरोध युधिष्ठिर के लिए असम्भव था चूंकि
धर्म की परिभाषा जो प्रचलित थी, इस तरह से पकड़ रखी थी कि वो उनके गले की फांस बन गयी थी.
श्रीकृष्ण ने उनकी इस मानसिकता का विरोध किया था और बताया था कि पिता की वो आज्ञा
जो नीतिविरुद्ध हो तथा सामाजिक औचित्य के विरुद्ध हो उसे मानने का कोई मतलब नही है, श्रीकृष्ण ने बड़े
ही पुरजोर शब्दों में ये बात कही थी कि धर्म विवेक रहित होकर स्थापित मूल्यों के
अनुकरण में नही है और इसी वजह से उन्होंने भीष्म, द्रोण इत्यादि को द्रौपदी चीरहरण के लिए दोषी
ठहराया tha
धृतराष्ट्र तो मूर्ख था, दुर्योधन भी, उन दोनों को पता था कि युधिष्ठिर कभी भी पित्राज्ञा के
विरुद्ध नही होंगे तो उनको धृतराष्ट्र जीवन भर बनवास की आज्ञा दे देते तो
युधिष्ठिर कभी भी हस्तिनापुर आते ही नही, वे वन में ही मर खप जाते.
हाँ,
युधिष्ठिर की
विशेषता यही थी कि वे स्वयं द्वारा निर्धारित धार्मिक मूल्यों पर अडिग रहते थे, कभी विमुख नही
हुए, उन्हें सत्य से
कभी भी समझौता नही किया किन्तु कतिपय मानवीय कमजोरियां तो थी ही, द्रौपदी से विवाह
करना एक इसी तरह की कमजोरी थी किन्तु यहाँ भी उनकी माता कुंती की आज्ञा की आड़ थी, युद्ध मे द्रोण
से मिथ्या कहना कि "अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा" मिथ्या प्रचार ही था लेकिन यहाँ भी
श्रीकृष्ण की प्रेरणा ही थी कि उन्होंने झूठ बोला था, सत्य का इस
अडिगता से पालन और स्वयं के प्रति किये गए अपराध को क्षमा करना तथा स्वयं में
शक्ति होते हुए भी उसका निजी लाभ के लिए दुरुपयोग न करना, सदा स्थापित
मूल्यों का दृढ़ता से पालन करना, उन्हें धर्मराज कहलाने के योग्य तो बनाती थी किन्तु समाज मे
जो संदेश जाता है वो उचित नही है.
विवेक रहित अंधानुकरण किसी भी व्यक्ति या समाज के लिए सही
नही हो सकता, परिणाम सामाजिक
संदर्भो में गलत ही होंगे,
उनके द्वारा पाली
गयी मान्यताएं उन्हें तो धर्मराज बनाती हैं किंतु इन मान्यताओं के परिणाम स्वरूप
उस समय के समाज और उनके परिवार को कितना कष्ट भोगना पड़ा, आखिरकार प्रजा को
दुर्योधन जैसे आततायी को राजा के रूप में पाकर कष्ट ही तो पाया, उनका क्या दोष था, युधिष्ठिर के
परिवार का क्या दोष था जो इतना कष्ट उठाना पड़ा, सारे के सारे युधिष्ठिर द्वारा धर्म पालन का ही तो दंड भोग
रहे थे. धर्म का पालन वैयक्तिक ही होना चाहिए, जब वो समाज और परिवार पर बंधन बनने लगे तो उसका त्याग ही
अच्छा.
दुर्योधन और शकुनि राजा धृतराष्ट्र के पास गये और उनसे चौसर
के खेल का आयोजन रखने का आग्रह किया। धृतराष्ट्र ने कहा कि वो विदुर की सलाह के
पश्चात इसका निर्णय करेंगे लेकिन दुर्योधन ne बिना पूछे इस
खेल का आयोजन करने के लिए अपने पिता को बाध्य किया। अंत में धृतराष्ट्र को उनकी
बात माननी पड़ी और उसें चौसर के खेल के आयोजन की घोषणा करवाई। विदुर को जब इस बात
का पता चला तो उन्होंने धृतराष्ट्र को बताया कि इस खेल से हमारे कुल का नाश हो
जाएगा लेकिन पुत्र प्रेम में धृतराष्ट्र कुछ नही बोले। भीष्म पितामह भी चुप रहे।
धृतराष्ट्र ने विदुर को युधिष्ठिर को खेल का न्योता देने को भेजा। दोस्तों उस चौसर यानि जुए के खेल के बाद क्या हुआ आप सब को
पता है परंतु उस जुवे के खेल मे मामा शकुनि के पासे की महत्वपूर्ण भूमिका थी आइये
जानते हैं आखिर उनके पासे का क्या रहस्य था।
यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि शकुनि के पास जुआ खेलने
के लिए जो पासे होते थे वह उसके मृत पिता की हड्डी के थे। अपने पिता की मृत्यु के
पश्चात शकुनि ने उनकी कुछ शक्तियों को अपने पास रख ली थी। शक्तिुनि जुआ खेलने में
पारंत था और उसने कौरवों में भी जुए के प्रति मोह जगा दिया था।
शकुनि की इस चाल के पीछे सिर्फ पांडवों का ही नहीं बल्कि
कौरवों का भी भयंकर विनाश छिपा था, क्योंकि शकुनि ने कौरव कुल के विनाश की सौगंध खाई थी और
उसके लिए उसने दुर्योधन को अपना आश्रम बना लिया था। शकुनि हर समय बस मौकों की तलाश
में रहता था जिसके कारण कौरव और पंडवों में भयंकर युद्ध स्ट्रोकें और कौरव मारे
गए।
जब युधिष्ठिर हस्तिनापुर का युवराज घोषित हुआ, तब शकुनि ने ही
लाक्षागृह का षडयंत्र रचा और सभी पांडवों को वारणावत में जिंदा जलाकर मार डालने का
प्रयत्न किया। शक्तिुनि किसी भी तरह दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा बनते देखना
चाहती थी ताकि उसकी दुर्योधन पर मानसिक आशिपत्य रहे और वह इस मुर्ख दुर्योधन की
सहायता से भीष्म और कुरुकुल के विनाश कर सके इसलिए उसने पांडवों के प्रति दुर्योधन
के मन में वैरभाव जगाया
ऐसा भी कहा जाता है कि शकुनि के पासे में उसके पिता की
आत्मा वसस कर गई थी जिसकी वजह से वह पासा शकुनि की ही बात मानता था। कहते हैं कि
शकुनि के पिता ने मरने से पहले शकुनी से कहा था कि मेरे मरने के बाद मेरी हड्डियों
से पासा बनाना, ये पासे हमेशा
तुम्हारी आज्ञा मानेंगे, तुमको जुए में
कोई हरा नहीं सकूंगा।यह भी कहा जाता है कि शकुनि के पासे के भीतर एक जीवित भंवरा
था जो हर बार शकुनि के पैरों की ओर आकर गिरता था। इसलिए जब भी पासा गिरता वह छ:
अंक दिखाता था। शकुनि भी इस बात से वाकिफ था इसलिए वह भी छ: अंक ही कहता था। शकुनि
का सौतेला भाई मटकुनि इस बात को जानता था कि पासे के भीतर भंवरा है।
हालांकि शकुनि की बारी की भावना कि इस कहानी का वर्णन
वेदव्यास कृत महाभारत में नहीं मिलता है। यह कहानी लोककथा और जनश्रुतियों पर
आधारित है कि उसके परिवार को धृतराष्ट्र ने जेल में डाल दिया था जहां उसके
माता-पिता, पिता और भाई भूख
से मारे गए थे। बहुत से विद्वानों का मत है कि शकुनि के पासे हाथीदंत के बने हुए
थे। शकुनि मायाजाल और सम्मोहन की मदद से पासो को अपने पक्ष में उलट देता था। जब
पांसे फेंके जाते थे तो कई बार उनके निर्णय पांडवों के पक्ष में होते थे, ताकि पांडव भ्रम
में रहे कि पासे सही हैं।
तीसरी
आँख होने कारण ही भगवान शिव को त्रिकाल द्र्स्टा, त्रिनेत्र, और त्रिलोचन भी कहा जाता है। जब भगवान
शिवतीसरी आंख खोलते हैं तो उससे बहुत ही
ज्यादा उर्जा निकलती है। माना जाता है कि महाप्रलय के समय शिव ही अपने तीसरे नेत्र
से सृष्टि का संहार करते हैं। भगवान शिव के चरित्र की सबसे विचित्र बात उनकी तीसरी
आँख होना ही है। दोस्तों आइए सुनते हैं शिव पार्वती और उनके पुत्र
से जुड़ी एक अद्भुत कथा।
प्राचीनकाल
से ही काशी शिव-क्रीड़ा का केंद्र रहा है| एक
बार भगवान शिव पार्वती सहित काशी पधारे| वे
कुछ दिन काशी में रुके, तत्पश्चात मंदराचल पर चले गए| मंदराचल पर शीतल-मंद हवा बह रही थी| शिव बड़ी तन्मयता से प्रकृति की छटा
देखने लगे| तभी एकाएक पीछे से आकर पार्वती ने
परिहास पूर्वक उनके दोनों नेत्र बंद कर दिए| पार्वती
के हाथों के पसीने और शिव के चेहरे के तेज से शिव के नेत्रों के कोर से पानी टपक
गया और उससे एक वीकराल मुख, भयंकर-क्रोधी, अंधा और कृष्ण वर्ण का बालक पैदा हो
गया| वह पैदा होते ही चिल्लाने और नाचने लगा
और बार-बार अपनी जीभ निकाल कर डरावनी चेष्टाएं करने लगा| यह देख पार्वती भयभीत हो गईं| उन्होंने शिव से उस विकराल बालक के
विषय में पूछा तो शिव ने बताया कि वह उन्हीं का पुत्र है, जो नेत्रों से पानी बहकर गिरने के कारण
उत्पन्न हो गया है| पार्वती ने उसके पालन-पोषण का दायित्व
अपनी सखी को सौंप दिया और वह बालक उनकी सखी द्वारा पोषित होने लगा| पार्वती जी ने उसका नाम अंधक रखा|
इसी
बीच हिरण्यकशिपु का भाई हिरण्याक्ष शिव की तपस्या में तल्लीन था| उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव प्रकट
हुए और उन्होंने उससे वर मांगने को कहा – “उठो
पुत्र! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं| बोलो
क्या वर मांगते हो|”
हिरण्याक्ष
बोला – “भगवन! मुझे एक पुत्र की कामना है| मेरे भाई के तो चार पुत्र हैं, किंतु मेरी पत्नी की गोद खाली है| कृपया मुझे पुत्र प्राप्ति का वरदान
दें|”
शिव
बोले – “तुम्हारे भाग्य में पुत्र प्राप्ति का
योग नहीं है दैत्यराज! लेकिन मैं तुम्हें अपना पुत्र दे सकता हूं| वह अंधा है परंतु बहुत बलशाली है| भविष्य में वह महाबलवान पुरुष बनेगा|”
यह
कहकर शिव ने अंधक को हिरण्याक्ष के हाथों में दे दिया| हिरण्याक्ष अंधक को लेकर खुशी-खुशी
अपने राज्य लौट गया| अंधक राजमहल में बड़ा होने लगा|
तभी
देवासुर संग्राम छिड़ गया और भगवान विष्णु द्वारा हिरण्याक्ष मारा गया| हिरण्याक्ष का बड़ा भाई हिरण्यकशिपु छिप
कर भाग निकला| हिरण्याक्ष के मरने के बाद राजमहल में
अंधक की उपेक्षा होने लगी|
उसके अन्य चचेरे भाई और संगी-साथी उसे
चिढ़ाने लगे| इससे अंधक दुखी रहने लगा| एक दिन उसके व्यवहार से तंग आकर वह
तपस्या करने निकल पड़ा और एक निर्जन वन में पहुंचकर ब्रह्मा जी की साधना में लीन हो
गया| तप करते हुए उसे कई वर्ष बीत गए| उसके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी
प्रकट हुए और उससे वर मांगने को कहा|
अंधक
ब्रह्मा जी के चरणों में गिरकर बोला – “पितामह!
मुझे ऐसा वर दीजिए कि मेरा अपमान करने वाले मेरे सभी भाई मेरी दासता करें| मेरे दिव्य नेत्र हो जाएं| मेरी किसी के द्वारा मृत्यु न हो|”
यह
सुनकर ब्रह्मा जी बोले –
“और सब तो ठीक है
वत्स! तुम्हारे नेत्र दिव्य हो जाएंगे, तुम्हारे
सारे भाई भी तुम्हारी दासता स्वीकार कर लेंगे| किंतु
तुम मनुष्य हो और कालचक्र का नियम है कि कोई भी मनुष्य मृत्यु से अछूता नहीं रह
सकता|”
अंधक
बोला – “तो फिर ऐसा ही वरदान दीजिए कि मेरे
शरीर से निकले रक्त की एक-एक बूंद से मेरे जैसे पराक्रमी वीर उत्पन्न हो जाएं|”
ब्रह्मा
जी बोले – “ठीक है| मैं तुम्हें यह वरदान देता हूं| साथ
ही यह भी वरदान देता हूं कि तुम्हारी मृत्यु विष्णु तथा शिव के द्वारा नहीं होगी|”
अंधक
को वरदान देकर ब्रह्मा जी अंतर्धान हो गए और अंधक वरदान पाकर एकदम सुपुष्ट एवं
नेत्रवान पुरुष बन गया| वह वापस दैत्यपुरी लौट आया| वरदान प्राप्त करके वह बेहद अत्याचारी
हो गया| उसके अत्याचारों से नाग, यक्ष
तथा देव-गंधर्व सभी दुखी रहने लगे| वे
सब ब्रह्मा जी की शरण में पहुंचे| किंतु
ब्रह्मा जी उन्हें कोई आश्वासन नहीं दे सके| क्योंकि
अंधकासुर उन्हीं के वरदान स्वरूप तो यह उत्पात मचाए हुए था| आखिर निराश होकर सब लोग भगवान
शिव के पास पहुंचे और उन्हें अंधकासुर
के अत्याचारों के बारे में अवगत कराया| शिव
ने उन्हें आश्वस्त किया| आश्वस्त होकर वे अपने स्थानों को लौट
गए|
शिव
पार्वती मंदराचल पर्वत पर ठहरे हुए थे| तभी
एक बार अंधक अपनी सेना के साथ मंदराचल पर पहुंचा| पर्वत की सुरम्यता देखकर वह विभोर हो उठा| उसने सोचा – ‘कितना सुंदर स्थान है| क्यों न यहां अपने लिए एक स्थायी नगर
का निर्माण करा दिया जाए|’
यह सोच उसने अपने एक सेवक को आदेश दिया
– “तुम कोई उचित स्थान तलाश करो, जहां हमारे लिए एक शानदार महल बन सके|”
आज्ञा
पाकर सेवक उचित स्थान की खोज में निकल पड़ा| कुछ
दूर जाने पर उसे एक जटाधारी पुरुष तप करता दिखाई दिया| उसके समीप ही एक सुंदर स्त्री बैठी हुई
थी| उसने सोचा-‘वाह! क्या सुंदरी है| लेकिन यह इस तपस्वी के पास क्या कर रही
है| इसे तो राजमहल की शोभा होनी चाहिए| चल कर महाराज को सूचित करूं|’ यह सोचकर वह वापस लौट आया और अंधक को
सारा वृतांत कह सुनाया| सुनकर अंधक बोला – “फिर से जाओ और उस सुंदरी को उठाकर मेरे
पास ले आओ और उसे साथ के तपस्वी पुरुष को कह देना कि मैं दैत्यराज अंधक का दूत हूं
और उनके लिए इस सुंदरी को ले जाना चाहता हूं|”
दूत
पुन: उसी स्थान पर जा पहुंचा| तब
तक शिव भजन-पूजा से निवृत हो चुके थे| उसने
अपने स्वामी अंधक का आदेश उन्हें कह सुनाया| सुनकर
शिव ने उससे कहा – “जाओ, अपने महाराज से कह देना से किसी की पत्नी पर कुदुष्टि डालना बहुत ही
अनुचित कार्य होता है|”
यह सुन कर अंधक ने सेना एकत्र की और हमला कर दियाघनघोर युद्ध छिड़ गया| अंधक ने नंदीश्वर को मुर्च्छित कर दिया
देवर्षि
नारद द्वारा यह समाचार विष्णु तक पहुंचाया गया| इंद्र
आदि को भी यह संदेश भेजा गयादेखते ही देखते देवों की एक विशाल सेना मंदराचल पर आ जुटीदेवों और दैत्यों में भयानक युद्ध छिड़
गया| लेकिन दैत्यों की प्रबल मार के आगे
देवताओं की हार होने लगी|
उनके पैर उखड़ने लगे|
अंधक
ने एक बार फिर शिव के पास संदेश भिजवाया कि उस स्त्री को मुझे सौंप दो, और अपनी जान बचा लो अन्यथा शीघ्र ही
अन्य देवों के साथ-साथ तुम्हें भी यमलोक पहुंचना पड़ेगा| यह संदेश सुनकर शिव के नेत्र जल उठे| उन्होंने हुंकार भरते हुए अपना त्रिशूल
उठा लिया| तभी घबराया हुआ नंदी वहां पहुंचा और
शिव से बोला – “प्रभु! दैत्य सेना बहुत ही प्रवल है| हमारे समस्त गण मारे गए| देवता मैदान छोड़कर भाग निकले हैं| मैं किसी तरह जान बचाकर आया हूं|”
शिव
बोले – “धैर्य रखो नंदीश्वर! अब उस दैत्य का
अंत समय आ पहुंचा है| मैं स्वयं युद्ध भूमि में चलता हूं|”
यह
कहकर शिव युद्ध भूमि में पहुंचे और अंधक से भिड़ गए| भयानक युद्ध छिड़ गया| भगवान
शिव लगातार अंधक के बाणों से अपना बचाव करते हुए त्रिशूल से प्रहार करते रहे| किंतु उनका हर प्रयत्न विफल हो रहा था| जैसे ही अंधक का कोई अंग घायल होता, उससे रक्त निकलता और उस रक्त से उस
जैसे ही अनेक दैत्य पैदा हो जाते थे|
उधर
शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या के बल पर मरे हुए दैत्यों को पुन: जीवित कर देते
थे| फलस्वरूप शिव के चारों ओर दैत्यों की
एक विशाल सेना खड़ी हो गई|
शिव ने अपने गणों को आदेश दिया कि
शुक्राचार्य को बांधकर यहां ले आएं ताकि वे दैत्यों को पुन: जीवित न कर सकें| गण शुक्राचार्य को बांधकर ले आए और
उन्हें शिव के सम्मुख खड़ा कर दिया| फिर
भगवन शिव ने विराट रूप धारण कर लिया| | इससे
शिवगणों का उत्साह दुगुना हो गया| उन्होंने
दुगुने जोश से दैत्यों का संहार करना आरम्भ कर दिया| दैत्य सेना में भगदड़ मच गई और शीघ्र ही सारी सेना मैदान छोड़कर भाग
निकली| अकेला अंधक भगवान शिव के सम्मुख डटा
रहा|
शिव
और अंधक में भयानक युद्ध छिड़ गया| अंधक
को अपने पर भारी पड़ता देख भगवान शिव ने अपने मुख से एक महाज्वाला उत्पन्न की| वह योगेश्वरी थी| माता महाकाली ने रक्तपान करना आरंभ कर
दिया| शिव त्रिशूल चलाते, अंधक के शरीर से रक्त फूटता और माता
काली रक्त को जमीन पर गिरने से पहले ही पान कर जाती| इससे अंधक बलहीन हो गया| उसके
कदम लड़खड़ाने लगे| भगवन शिव ने उसके हृदय को निशाना बनाकर
त्रिशूल चलाया और अंधक का हृदय बेध दिया, साथ
ही उसे त्रिशूल के ऊपर टांग दिया| अंधक
के गिरते रक्त को नीचे खड़ी काली सहित सभी योगनियां जमीन पर गिरने से पहले ही अपने
विशाल मुख में लुप्त करना लगीं|
फिर
युद्ध शांत हो गया लेकिन ब्रह्मा जी के वरदान स्वरूप अंधक नहीं मर सका| वह त्रिशूल पर टंगा-टंगा ही शिव का जाप
करता हुआ अपनी भूल का प्रायश्चित करने लगा| दयालु
शिव उसके जप से प्रसन्न हुए और उसे त्रिशूल से नीचे उतारा और वर मांगने को कहा|
अंधक
ने शिव के चरणों में प्रणाम करके कहा – “भगवन!
मुझे क्षमा करें| मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया था| मैंने माता पार्वती पर कुदृष्टि डाली
थी| अब से मैं आपकी सेवा में रहूंगा और कभी
भी अपने अंदर दैत्य भाव जाग्रत न होने दूंगा| न
ही देव विरोधी कार्य करूंगा| प्रभु!
मैं चाहता हूं कि मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाए| आज से मैं हर समय आपकी सेवा में दास की तरह उपस्थित रहूं| मेरे समस्त विकार धुल जाएं|”
‘तथास्तु’ कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए|
त्रिपुरारी
रुद्र की कृपा से भू-मंडल पर एक बार फिर से धर्म ध्वजा फहराने लगी| एक बार फिर वैदिक धर्म का पालन होने
लगा| जगह-जगह यज्ञ-हवन होने लगे| वातावरण में फिर मंत्र गूंजने लगे|
श्री कृष्ण के अलावा ये देवता भी बने थे हिस्सा महाभारत
युद्ध का
भले आपके साथ भगवान है किंतु बाण आपको ही चलाना पड़ेगा!महाभारत के भीषण
युद्ध में अर्जुन के साथ स्वयं परब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण थे।श्री कृष्ण वो
तत्त्व है जिनके चरणकमलों से करोड़ो करोड़ो ब्रह्मांड क्षण क्षण में उत्पन्न होते है
और विलय होते है। जब बर्बरीक ने दो क्षण में समस्त कौरव सेना नष्ट करने का प्रमाण
दिखा दिया था, तो स्वयं भगवान
के लिए शत्रु सेना का एक क्षण में नाश कर देना क्या बड़ी बात थी!किन्तु उन भगवान
ने अर्जुन का युद्ध मे साथ देने के लिए क्या शर्त रखी:
"अर्जुन! मैं तो
निहत्था और अकेला ही आऊंगा तुम्हारे साथ। और हाँ इस युद्ध में एक बार भी मैं स्वयं
शस्त्र नहीं उठाऊँगा। युद्ध तुम्हे ही करना है।"
तो महाभारत को जीतने के लिए अर्जुन को गांडीव धनुष पर हजारो बाण
चढ़ाकर उनसे असंख्य शत्रु सेना का संहार करना पड़ा। दोस्तों इस बात से केवल कुछ लोग ही अवगत हैं कि श्री
कृष्ण के अलावा दूसरे देवताओं ने भी महाभारत के युद्ध में भूमिका निभाई थी| आइए जानते हैं किस देवता ने कब महाभारत युद्ध मे अपना
योगदान दिया था।
महाभारत के युद्ध में देवताओं की संतानों ने भाग लिया था| इसलिए देवताओं को
भी युद्ध लड़ने के लिए धरती पर आना पड़ा| इस युद्ध में भाग लेने वाले देवताओं में सबसे पहला नाम
सूर्य देव का आता है| क्योंकि कर्ण
सूर्य देव के पुत्र थे जो कुंती को विवाह से पूर्व वरदान के रूप में मिले थे| युद्ध के समय
सूर्य देव कर्ण के पास आये और उन्हें इंद्र द्वारा किये जाने वाले छल के बारे में
बताया और कहा कि यदि इंद्र उनसे कवच और कुंडल मांगने आएं तो यह उन्हें मत देना| इससे तुम्हारे
प्राण बचे रहेंगे|
इंद्र ने भी महाभारत युद्ध में भूमिका निभाई थी| अर्जुन इंद्र के
पुत्र थे| इसलिए इंद्र अपने
पुत्र अर्जुन के लिए इस युद्ध का हिस्सा बने| इंद्र ने श्री कृष्ण से वचन लिया था कि वह सदैव अर्जुन की
रक्षा करेंगे| इंद्र ने अपने
पुत्र अर्जुन को युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए देवताओं के सारे दिव्यास्त्र
दिए तथा उन्होंने अर्जुन की रक्षा करने के लिए कर्ण से छल करके उनका सुरक्षा कवच
भी दान में मांग लिया|
महाभारत के युद्ध में भगवान शिव ने भी अपनी एक भूमिका निभाई
थी| महाभारत में विष्णु
जी के अवतार श्री कृष्ण ने पूरे युद्ध का संचालन किया तो भगवान भोलेनाथ भला विष्णु
जी की सहायता करने में कैसे पीछे हट सकते थे| श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने भगवान शिव की तपस्या की
और किरात वेष में भगवान भोलेनाथ प्रकट हुए और अर्जुन को पशुपतास्त्र भेंट किया| इस अस्त्र के
कारण अर्जुन के लिए स्वर्ग के द्वार खुल गए जहां से अर्जुन सारे दिव्यास्त्र
पाने में कामयाब हुआ|
महाभारत युद्ध के अंत में ब्रह्मा जी को भी युद्ध में भाग
लेना पड़ा| यह घटना तब हुई
जब अश्वत्थामा और अर्जुन दोनों ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया| ऐसे में सृष्टि
की रक्षा के लिए ब्रह्मा ने ब्रह्मास्त्र को वापस लेने के लिए कहा। अर्जुन ने अपना
ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया लेकिन अश्वत्था ऐसा नहीं कर पाए और अर्जुन की
पुत्रवधू उत्तरा के गर्भ में पल रहे परीक्षित को इसका निशाना बनाया|