Friday, 26 March 2021

जूआ खेलने वाले युधिष्ठिर को धर्मराज कहने का औचित्य क्या है?? Kaal Chakra

जूआ खेलने वाले युधिष्ठिर को धर्मराज कहने का औचित्य क्या है?

युधिष्ठिर स्वयं का धर्म जिस तरह चाहते, पालते लेकिन उनके पालन करने से बाकी लोग व्यथित हो रहे थे, उसका क्या. मेरे धर्म पालन से मुझे लाभ या नुकसान हौवे तो ठीक, सारे संसार को उसका परिणाम भुगतना पड़े तो धर्म नही हुआ, लाखों लोग कट गए क्योंकि तथाकथित धर्मराज स्वयं का धर्म का निर्वाह कर रहे थे. इस भूल को हम आज भी ढोएं जा रहे हैं, धर्म पूर्णतः वैयक्तिक है, मेरे धर्म का किसी दूसरे के धर्म से कोई लेना देना नही, मेरे धर्म की छाया भी दूसरे पर ना पड़े तो ही धर्म, धर्म है, अन्यथा केवल ढोंग है. दोस्तों आज विचार करेंगे इस प्रश्न पर की क्या जूआ खेलने वाले युधिष्ठिर को धर्मराज कहना सही है ??

 

 

हमें उस काल की परिस्थितियों को भी जानना होगा, मनुष्य की चेतना का शैशव काल था उस समय धर्म की परिभाषा, जो स्थापित मानदंडों पर कसी गयी थी, उसे ही श्रेष्ठ माना गया था. भगवान श्रीराम का युग बीत चुका था किंतु उनके द्वारा संयम और मर्यादा के कठोर मानदंड स्थापित किये गए थे, इन्ही मानदंडों को धर्म की अंतिम परिभाषा माना जाता था, इन मानदंडों में पिता या पिता समकक्ष किसी भी व्यक्ति की आज्ञा का अक्षरशः पालन ही धर्म माना गया था चाहे वो आज्ञा कितनी भी गलत और नीतिविरुद्ध हो.

धृतराष्ट्र युधिष्ठिर के पिता तो नही पिता के बड़े भाई थे और इसी वजह से पितृतुल्य थे और उनकी आज्ञा का विरोध युधिष्ठिर के लिए असम्भव था चूंकि धर्म की परिभाषा जो प्रचलित थी, इस तरह से पकड़ रखी थी कि वो उनके गले की फांस बन गयी थी. श्रीकृष्ण ने उनकी इस मानसिकता का विरोध किया था और बताया था कि पिता की वो आज्ञा जो नीतिविरुद्ध हो तथा सामाजिक औचित्य के विरुद्ध हो उसे मानने का कोई मतलब नही है, श्रीकृष्ण ने बड़े ही पुरजोर शब्दों में ये बात कही थी कि धर्म विवेक रहित होकर स्थापित मूल्यों के अनुकरण में नही है और इसी वजह से उन्होंने भीष्म, द्रोण इत्यादि को द्रौपदी चीरहरण के लिए दोषी ठहराया tha

 

धृतराष्ट्र तो मूर्ख था, दुर्योधन भी, उन दोनों को पता था कि युधिष्ठिर कभी भी पित्राज्ञा के विरुद्ध नही होंगे तो उनको धृतराष्ट्र जीवन भर बनवास की आज्ञा दे देते तो युधिष्ठिर कभी भी हस्तिनापुर आते ही नही, वे वन में ही मर खप जाते.

हाँ, युधिष्ठिर की विशेषता यही थी कि वे स्वयं द्वारा निर्धारित धार्मिक मूल्यों पर अडिग रहते थे, कभी विमुख नही हुए, उन्हें सत्य से कभी भी समझौता नही किया किन्तु कतिपय मानवीय कमजोरियां तो थी ही, द्रौपदी से विवाह करना एक इसी तरह की कमजोरी थी किन्तु यहाँ भी उनकी माता कुंती की आज्ञा की आड़ थी, युद्ध मे द्रोण से मिथ्या कहना कि "अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा" मिथ्या प्रचार ही था लेकिन यहाँ भी श्रीकृष्ण की प्रेरणा ही थी कि उन्होंने झूठ बोला था, सत्य का इस अडिगता से पालन और स्वयं के प्रति किये गए अपराध को क्षमा करना तथा स्वयं में शक्ति होते हुए भी उसका निजी लाभ के लिए दुरुपयोग न करना, सदा स्थापित मूल्यों का दृढ़ता से पालन करना, उन्हें धर्मराज कहलाने के योग्य तो बनाती थी किन्तु समाज मे जो संदेश जाता है वो उचित नही है.

विवेक रहित अंधानुकरण किसी भी व्यक्ति या समाज के लिए सही नही हो सकता, परिणाम सामाजिक संदर्भो में गलत ही होंगे, उनके द्वारा पाली गयी मान्यताएं उन्हें तो धर्मराज बनाती हैं किंतु इन मान्यताओं के परिणाम स्वरूप उस समय के समाज और उनके परिवार को कितना कष्ट भोगना पड़ा, आखिरकार प्रजा को दुर्योधन जैसे आततायी को राजा के रूप में पाकर कष्ट ही तो पाया, उनका क्या दोष था, युधिष्ठिर के परिवार का क्या दोष था जो इतना कष्ट उठाना पड़ा, सारे के सारे युधिष्ठिर द्वारा धर्म पालन का ही तो दंड भोग रहे थे. धर्म का पालन वैयक्तिक ही होना चाहिए, जब वो समाज और परिवार पर बंधन बनने लगे तो उसका त्याग ही अच्छा.

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