Saturday, 30 June 2018

रावण पुत्र इंद्रजीत और सूर्य पुत्र कर्ण के बीच युद्ध में कौन विजयी होता ...



        कर्ण और इंद्रजीत युद्ध
महाभारत और रामायण में
सम्पूर्ण भारत समाया है
| हमारा दर्द, हमारी खुशी, हमारी इच्छा, हमारा लालच, हमारा धर्म, हमारी ज़िम्मेदारी, मर्यादा का पालन, अपितु सम्पूर्ण गीताज्ञान ज्ञान ही इसमें सम्मिलित है| दोनों महाकाव्य हैं, और भारत के साहित्य की बुनियाद हीं नहीं बल्कि हमारे जीवन
यापन की बुनियाद हैं
| धर्म की
सीमा से परे रामायण और महाभारत प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनुकरणीय है
| दोस्तों हमने अपने पिछले अध्याय मे रामायण और महाभारत के
दो महान पत्रों की तुलना की थी और इसी क्रम को आगे बढ़ते हुए आज एक बार फिर दोनों
ही महाकाव्यों मे से हम दो ऐसे योद्धाओं को लेकर आए हैं जो अपने आप मे अतुलनिए
हैं... पहला नाम है रावण का महाप्रतापी पुत्र इंद्रजीत और दूसरा है सूर्यपुत्र
कर्ण।
ये काल चक्र है...
एक तरफ है कर्ण जिनकी की छवि
आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों
से लड़ता रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला
जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था। तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के
सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और
युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था
, लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही।
और दूसरी तरफ हैं इंद्रजीत या
मेगनाथ – जब रावण को एक पुत्र की चाहत थी
, जो दुनिया का सबसे अच्छा पुत्र साबित हो. उसने अपने ज्ञान से सारे ग्रहों
को ऐसे स्थान पर बैठाया जिससे उसे एक सपूत की प्राप्ति हो और वो शक्ति और ऐश्वर्य
का धनी हो. रावण की चाहत पूरी हुई और मेघनाथ पैदा हुआ. जब रावण का पुत्र पैदा हुआ
तो उसके रोने की आवाज़़ बिजली के कड़कने जैसी थी. इस आवाज़ के कारण ही रावण ने
अपने बेटे का नाम मेघनाथ रखा
, जिसका मतलब होता है बिजली.
आइए दोनों हीं योद्धाओं की
विशेषताओं पर नजर डालते हैं और ये समझने का प्रयास करते हैं की इन दोनों मे कोण
अधिक श्रेष्ठ था। 

Wednesday, 27 June 2018

जब रावण को झेलना पड़ा हनुमान जी का महाप्रलयंकारी मुक्का ..... Kaal Chakra



          रावण और हनुमान जी युद्ध
हनुमान हिंदू धर्म में भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त और
भारतीय महाकाव्य रामायण में सबसे महत्वपूर्ण पौराणिक चरित्र हैं। रामचरितमानस में
हनुमान जी को "महावीर" कहा गया है। शास्त्रों में "वीर" शब्द
का उपयोग बहुतो हेतु किया गया है। जैसे भीम
, भीष्म, मेघनाथ, रावण, इत्यादि परंतु
"महावीर" शब्द मात्र हनुमान जी के लिए ही उपयोग होता है।
दोस्तों क्या आपको पता है कि आमतौर पर हनुमान जी युद्ध में
गदा का प्रयोग नहीं करते थे
, अपितु
अपने मुक्के का प्रयोग करते थे। कहा जाता है की हनुमान जी का मुक्का ऐसे था की बड़े
बड़े महारथी एक ही मुक्के मे धरसही हो जाते थे। आज इस विडियो में हम तुलसीदास कृत
रमचरितमांस से हनुमान जी के मुक्के से जुड़ा एक ऐसा  प्रसंग सुनाएँगे जब रावण जैसे महारथी को भी इस
मुक्के का प्रकोप झेलना पड़ा।
ये काल चक्र है...
इस प्रसंग का उल्लेस्ख
तुलसीदास कृत रामचरित मानस मे मिलता है
, बात उस समय की है जब हनुमान जी ने मेगनाद द्वारा छोड़े गए ब्रह्मास्त्र
जैसे अस्त्र का मान रखने के लिए स्वयं को बंदी बना लिया था और उन्हे रावण की सभा
मे ले जया गया। वहाँ रावण के समक्ष हनुमान जी की कई विशेषताओं पर बात हुई जैसे की
हनुमान जी का अपर बल
, उड़ने की शक्ति सूक्ष्म और विराट रूप
धरण करने की शक्ति इत्यादि। पर उस राजसभा मे सबसे ज्यदा प्रसंसा हनुमान जी के
मुक्के की हो रही थी। जब रावण ने हनुमान के मुक्के कि प्रशंसा सुनि तो उसने हनुमान
जी बोला
,  "आपका मुक्का बड़ा ताकतवर है, आओ जरा एक एक मुक्के का एक छोटा सा युद्ध हो जाए।
फिर हनुमानजी ने कहा "ठीक है! पहले आप मारो।"
रावण ने कहा "मै क्यों मारूँ ? पहले आप
मारो"।
हनुमान बोले "आप पहले मारो क्योंकि मेरा मुक्का खाने
के बाद आप मारने के लायक ही नहीं रहोगे"।
यह सुनकर रावण बहुत क्रोधित
हुआ और
हनुमान जी को पूरी शक्ति से एक बहुत
ज़ोर का
मुक्का मारा। इस प्रकरण की पुष्टि रामचरितमानस की यह चौपाई करती है जाम टेक कपि भूमि न गिरा
रावण के प्रभाव से हनुमान जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे
नहीं
, रावण की
आश्चर्य की सीमा न रही वह हैरानी भरी नजरों से हनुमान जी को देखता ही रह गया।
अब बारी थी महावीर हनुमान जी
की
, क्रोध से भरे हुए
हनुमानजी ने रावण
पर अपने मुक्का का परहार किया। रावण ऐसा गिर
पड़ा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो
और
कुछ समय के लिए मूर्छित हो गया
। रावण की मूर्च्छा भंग
होने पर वह जागा और हनुमानजी के बड़े भारी बल को सराहने लगा
, गोस्वामी तुलसी
दास जी कहते हैं कि "मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा
"अहंकारी
रावण किसी की प्रशंसा नहीं करता पर मजबूरन हनुमान जी की प्रशसा कर रहा है।
इस प्रकार हनुमान जी अपने एक
ही मुक्के से रावण को उसका स्थान बता दिया था।
यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥
भावार्थ :
जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषय परिस्थितियों में भी विचलित नहीं
होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है
, वही सच्चा ज्ञानी है ।
ravan hanuman yudh,
who was more powerful hanuman or ravana,
hanuman aur ravan ki ladai,
jai hanuman ravan,
ram ravan yudh,
hanuman parshuram yudh,
hanuman ahiravan yudh,
hanuman ravan samvad,

Saturday, 23 June 2018

दो माताओं की गर्भ से आधा-आधा जन्मा था यह योद्धा || Kaal Chakra



    दो
माताओं की गर्भ से आधा-आधा जन्मा था यह योद्धा
महाभारत खूबसूरत घटनाओं के संकलन के रूप में प्रस्तुत एक ऐसा ग्रंथ है जो
मनुष्य को अपने दायित्वों
,
मर्यादाओं और पारिवारिक
संबंधों का बोध कराते हुए अपने लालच और इच्छाओं पर नियंत्रण रखना सिखाता है।
महाभारत की कहानी
कौरव-पांडव युद्ध से संबंधित
तो है, लेकिन उस युद्ध को आधार
देने वाले पात्र और विभिन्न योद्धाओं का जिक्र भी अनिवार्य है।
आज हम बात करने जा रहे हैं महाभारत कालीन मगध राज्य का नरेश
जरासंध की। मगध पर शासन करने वाला प्राचीनतम ज्ञात राजवंश वृहद्रथ-वंश है
, जरासंध इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था, जो बृहद्रथ का पुत्र था। जरासंध अत्यन्त पराक्रमी एवं
साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। हरिवंश पुराण से ज्ञात होता है कि उसने काशी
, कोशल, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, सौबिर, मद्र, काश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त किया। इसी कारण
पुराणों में जरासंध को महाबाहु
, महाबली
और देवेन्द्र के समान तेज़ वाला कहा गया है। कहा जाता है की जरासंध का जन्म दो
टुकड़ो मे हुआ था आज इस विडियो मे हम आपको जरासंध जन्म की ये रोचक कहानी सुनाएँगे।
ये काल चक्र है...
ये कहानी है भारत के पूर्वी
भाग में स्थित मगध के राजा बृहद्रथ की
, जिसकी दो रानियां थी, लेकिन फिर भी उन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हो
पा रहा था। अपनी संतान की
इच्छा पूरी करने के लिए उसने हर उपाय आजमा लिया
, लेकिन फिर भी कुछ हाथ नहीं लगा। पुत्र का न होना किसी भी
राजा के लिए परेशानी की बात होती थी। ऐसी हालत में राजा का साम्राज्य किसी और को
मिल जाता था। किसी ने जरासंध के पिता बृहद्रथ को बताया कि एक पहुंचे हुए साधु शायद
उनकी मदद कर सकते हैं। वह उन साधु के पास पहुंचे। साधु ने राजा बृहद्रथ को मंत्र
पढ़ कर एक फल दिया और कहा - राजन
, यह फल
अपनी पत्नी को खिला देना
, वह गर्भवती
हो जाएगी।
राजा बृहद्रथ फल लेकर महल लौट
आये। अब उनकी परेशानी यह थी कि वो अपनी दोनों पत्नियों से बराबर प्यार करते थे।
उन्होंने उन दोनों को इस तरह से रखा था कि कोई भी उपेक्षित महसूस न करे और न ही
कोई अपने को दूसरे से अच्छा समझे। अब राजा समझ नहीं पा रहा थे कि वह यह फल किसे
दें। इन रानियों का जीवन तब तक अधूरा था
, जब तक कि वे राजा के लिए एक बेटा पैदा न करें। फिर उन्हें
यह महत्वाकांक्षा भी थी कि उन्हीं का पुत्र आगे चलकर राजा बने। तो फल किसे दिया
जाए
,
इसमें सत्ता-संघर्ष और भावना दोनों ही मुद्दे थे। ऐसे में
अपनी उदारता का परिचय देते हुए राजा ने दोनों पत्नियों को आधा-आधा आम देने का
फैसला किया।
दोनों ही आधा आधा आम खाकर
गर्भवती हो गईं। नौ महीने के बाद दोनों के शरीर से एक बच्चे का आधा-आधा हिस्सा
पैदा हुआ। यह देखकर वे डर गईं और समझीं कि कोई अपशगुन हो गया है। उन्होंने दासियों
को आज्ञा दी कि वे बच्चे के आधे-आधे हिस्सों को दो अलग-अलग कपड़ों में लपेटकर फेंक
आएं। दासियों ने जहां बच्चे के हिस्सों को फेंका था
, वहाँ एक जादूगरनी जराकी नजर उसपर
पड़ी और उसने अपने जादू से उस बालक के टुकड़ों को जोड़ दिया। जुड़ते ही वह बालक रोने
लगा।
बालक की रोने की आवाज सुनकर
दोनों रानियां बाहर निकली और उन्होंने उस बालक को गोद में ले लिया। राजा बृहद्रथ
भी वहां आ गए और उन्होंने उस राक्षसी से उसका परिचय पूछा। राक्षसी ने राजा को सारी
बात सच-सच बता दी। राजा बहुत खुश हुए और उन्होंने उस बालक का नाम जरासंध रख दिया
क्योंकि उसे जरा नाम की राक्षसी ने संधित (जोड़ा) किया था।
कौरवों का साथी होने के नाते
जरासंध महाभारत में खलनायक की तरह ही उल्लेखित है। इतिहास गवाह है कि दुनियाभर के
खलनायक विभक्त और खंडित व्यक्तित्व वाले ही होते हैं
, उनका बाहरी रंग-रूप चाहे जैसा हो। जरासंध का अंत भी खंडित
व्यक्तित्व का अंत था। भीम नें उसके शरीर को दो हिस्सों में विभक्त कर मृत्यु
प्रदान की थी।
अंतकाले च मामेव
स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति
नास्त्यत्र संशयः ॥8.5॥

 भावार्थ :
जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको
ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है
, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी
संशय नहीं है ।


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Friday, 8 June 2018

सावित्री ने छिन लिया था यमराज से अपना पति || Kaal Chakra



                       सावित्री सत्यवान
कथा
प्राचीन काल से आज तक अनेक भारतीय नारी-रत्नों ने संसार में
कई उच्चतम आदर्शों की स्थापना की है और अपने सुकृत्यों एवं सेवाओं से नारी जाति के
नाम को उज्जवल किया है। भारतीय नारी प्रारंभ से ही पृथ्वी के समान क्षमाशील समुद्र
के समान गंभीर शशि के समान शीतल
, रवि के समान तेजस्वी तथा पर्वत के समान मानसिक रूप से उन्नत
रही है। यूं तो भारत में हजारों ऐसी महिलाएं हुई हैं जिनकी पतिव्रता पालन की मिसाल
दी जाती है
, लेकिन उनमें से भी कुछ ऐसी हैं जो इतिहास का अमिट हिस्सा बन
चुकी हैं।
इन्हीं मे से एक नारी हैं
सावित्री जिनकी पतिव्रता ऐसी थी जिसके प्रभाव के कारण इनके मृत पति भी जीवित हो
उठे थे। आइए सुनते हैं माता सावित्री की ये अद्भुत कहानी।
ये काल चक्र है...
दोस्तों इस कहानी का उल्लेख
सर्वप्रथम महाभारत के वन पर्व मे मिलता है। जब पांडव वनवास के दौरान इधर उधर विचरण
कर रहे थे उसी दौरान उनकी मुलाक़ात मार्कन्डेय ऋषि से हुई। धर्मराज युधिष्ठिर ने
मार्कण्डेय ऋषि से कहा
, "हे
ऋषिश्रेष्ठ! मुझे अपने कष्टों की चिन्ता नहीं है
, किन्तु इस द्रौपदी के कष्ट को देखकर अत्यन्त क्लेश होता है।
जितना कष्ट यह उठा रही है
, क्या और
किसी अन्य पतिव्रता नारी ने कभी उठाया है
?" तब मार्कण्डेय ऋषि बोले, "हे धर्मराज! तुम्हारे इस प्रश्न के उत्तर में मैं तुम्हें
पतिव्रता सावित्री की कथा सुनाता हूँ।
मद्रदेश के अश्वपतिनाम का एक बड़ा ही धार्मिक राजा था।
जिसकी पुत्री का नाम सावित्री था। सावित्री जब विवाह योग्य हो गई। तब महाराज उसके
विवाह के लिए बहुत चिंतित थे। एक दिन उन्होंने सावित्री को बुला कर कहा कि पुत्री!
तुम अत्यन्त विदुषी हो अतः अपने अनुरूप पति की खोज तुम स्वयं ही कर लो। पिता की
आज्ञा पाकर सावित्री एक वृद्ध तथा अत्यन्त बुद्धिमान मन्त्री को साथ लेकर पति की
खोज हेतु देश-विदेश के पर्यटन के लिये निकल पड़ी। जब वह अपना पर्यटन कर वापस अपने
घर लौटी तो उस समय सावित्री के पिता देवर्षि नारद के साथ भगवत्चर्चा कर रहे थे।
सावित्री ने दोनों को प्रणाम किया और कहा कि हे पिता! आपकी आज्ञानुसार मैं पति का
चुनाव करने के लिये अनेक देशों का पर्यटन कर वापस लौटी हूँ। शाल्व देश में
द्युमत्सेन नाम से विख्यात एक बड़े ही धर्मात्मा राजा थे। किन्तु बाद में दैववश वे
अन्धे हो गये। जब वे अन्धे हुये उस समय उनके पुत्र की बाल्यावस्था थी। द्युमत्सेन
के अनधत्व तथा उनके पुत्र के बाल्यपन का लाभ उठा कर उसके पड़ोसी राजा ने उनका
राज्य छीन लिया। तब से वे अपनी पत्नी एवं पुत्र सत्यवान के साथ वन में चले आये और
कठोर व्रतों का पालन करने लगे। उनके पुत्र सत्यवान अब युवा हो गये हैं
, वे सर्वथा मेरे
योग्य हैं इसलिये उन्हीं को मैंने पतिरूप में चुना है। "सावित्री की बातें
सुनकर देवर्षि नारद बोले कि हे राजन्! पति के रूप में सत्यवान का चुनाव करके
सावित्री ने बड़ी भूल की है। नारद जी के वचनों को सुनकर अश्ववपति चिन्तित होकर
बोले के हे देवर्षि! सत्यवान में ऐसे कौन से अवगुण हैं जो आप ऐसा कह रहे हैं
? इस पर नारद जी ने
कहा कि राजन्! सत्यवान तो वास्तव में सत्य का ही रूप है और समस्त गुणों का स्वामी
है। किन्तु वह अल्पायु है और उसकी आयु केवल एक वर्ष ही शेष रह गई है। उसके बाद वह
मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। "देवर्षि की बातें सुनकर राजा अश्वैपति ने
सावित्री से कहा कि पुत्री! तुम नारद जी के वचनों को सत्य मान कर किसी दूसरे उत्तम
गुणों वाले पुरुष को अपना पति के रूप में चुन लो। इस पर सावित्री बोली कि हे तात्!
भारतीय नारी अपने जीवनकाल में केवल एक ही बार पति का वरण करती है। अब चाहे जो भी
हो
, मैं किसी दूसरे को अपने पति के रूप में स्वीकार नहीं कर
सकती।
पुत्री के हठ के कारण पिता को
विवश होना पड़ा और सावित्री के द्वारा चुने हुए वर सत्यवान से धुमधाम और पूरे
विधि-विधान से विवाह करवा दिया गया। "विवाह के पश्चात् सावित्री अपने राजसी
वस्त्राभूषणों को त्यागकर तथा वल्कल धारण कर अपने पति एवं सास श्वीसुर के साथ वन
में रहने लगी। पति तथा सास श्विसुर की सेवा ही उसका धर्म बन गया। किन्तु
ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता जाता था
, सावित्री के मन का भय बढ़ता जाता था। अन्त्ततः वह दिन भी आ गया जिस दिन
सत्यवान की मृत्यु निश्चिनत थी। उस दिन सावित्री ने द‍ृढ़ निश्चनय कर लिया कि वह
आज अपने पति को एक भी पल अकेला नहीं छोड़ेगी। जब सत्यवान लकड़ी काटने हेतु कंधे पर
कुल्हाड़ी रखकर वन में जाने के लिये तैयार हुये तो सावित्री भी उसके साथ जाने के
लिये तैयार हो गई। सत्यवान ने उसे बहुत समझाया कि वन का मार्ग अत्यन्त दुर्गम है
और वहाँ जाने में तुम्हें बहुत कष्ट होगा किन्तु सावित्री अपने निश्चतय पर अडिग
रही और अपने सास श्वकसुर से आज्ञा लेकर सत्यवान के सा गहन वन में चली गई।
"लकड़ी काटने के लिये
सत्यवान एक वृक्ष पर जा चढ़े किन्तु थोड़ी ही देर में वे अस्वस्थ होकर वृक्ष से
उतर आये। उनकी अस्वस्थता और पीड़ा को ध्यान में रखकर सावित्री ने उन्हें वहीं
वृक्ष के नीचे उनके सिर को अपनी जंघा पर रख कर लिटा लिया। लेटने के बाद सत्यवान
अचेत हो गये। सावित्री समझ गई कि अब सत्यवान का अन्तिम समय आ गया है इसलिये वह
चुपचाप अश्रु बहाते हुये ईश्वर से प्रार्थना करने लगी। अकस्मात् सावित्री ने देखा
कि एक कान्तिमय
, कृष्णवर्ण, हृष्ट-पुष्ट, मुकुटधारी व्यक्तिय उसके सामने खड़ा
है। सावित्री ने उनसे पूछा कि हे देव! आप कौन हैं
? उन्होंने
उत्तर दिया कि सावित्री! मैं यमराज हूँ। और तुम्हारे पति को लेने आया हूँ। सावत्री
बोली हे प्रभो! सांसारिक प्राणियों को लेने के लिये तो आपके दूत आते हैं किन्तु
क्या कारण है कि आज आपको स्वयं आना पड़ा
? यमराज ने उत्तर
दिया कि देवि! सत्यवान धर्मात्मा तथा गुणों का समुद्र है
, मेरे
दूत उन्हें ले जाने के योग्य नहीं हैं। इसीलिये मुझे स्वयं आना पड़ा है। इतना कह
कर यमराज सत्यवान को ले कर चल पड़ते हैं। सावित्री अपने पति को ले जाते हुये देखकर
स्वयं भी यमराज के पीछे-पीछे चल पड़ी। कुछ दूर जाने के बाद जब यमराज ने सावित्री
को अपने पीछे आते देखा तो कहा कि हे सवित्री! तू मेरे पीछे मत आ क्योंकि तेरे पति
की आयु पूर्ण हो चुकी है और वह अब तुझे वापस नहीं मिल सकता। अच्छा हो कि तू लौट कर
अपने पति के मृत शरीर के अन्त्येष्टि की व्यवस्था कर। अब इस स्थान से आगे तू नहीं
जा सकती। सावित्री बोली कि हे प्रभो! भारतीय नारी होने के नाते पति का अनुगमन ही
तो मेरा धर्म है और मैं इस स्थान से आगे तो क्या आपके पीछे आपके लोक तक भी जा सकती
हूँ क्योंकि मेरे पातिव्रत धर्म के बल से मेरी गति कहीं भी रुकने वाली नहीं है।
"यमराज बोले कि सावित्री! मैं तेरे पातिव्रत धर्म से
अत्यन्त प्रसन्न हूँ। इसलिये तू सत्यवान के जीवन को छोड़कर जो चाहे वह वरदान मुझसे
माँग ले तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर के आंखे मांग ली। यमराज ने कहा तथास्तु
लेकिन वह फिर उनके पीछे चलने लगी। तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर मांगने को कहा
उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए।
यमराज ने वो भी दे दिया  उसके बाद तीसरा वर मांगा की मुझे पुत्र प्राप्ति हो यमराज ने आवेश मे तथास्तु कह
दिया। सावित्री यमराज के पीछे ही चलती रही। उसे अपने पीछे आता देख यमराज ने कहा कि
सावित्री तू मेरा कहना मान कर वापस चली जा और सत्यवान के मृत शरीर के अन्तिम
संस्कार की व्यवस्था कर। इस पर सावित्री बोली कि हे प्रभु! आपने अभी ही मुझे पुत्र
प्राप्ति का वरदान दिया है
, यदि मेरे
पति का अन्तिम संस्कार हो गया तो मेरे पुत्र कैसे होंगे
? सावित्री के वचनों को सुनकर यमराज आश्च्र्य में पड़ गये और
अन्त में उन्होंने कहा कि सावित्री तू अत्यन्त विदुषी और चतुर है। तूने अपने वचनों
से मुझे चक्कर में डाल दिया है। तू पतिव्रता है इसलिये जा
, मैं सत्यवान को जीवनदान देता हूँ। इतना कह कर यमराज वहाँ से
अन्तर्धान हो गये और सावित्री वापस सत्यवान के शरीर के पास लौट आई।

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Saturday, 2 June 2018

श्री हरी विष्णु को क्यूँ लेना पड़ा था वामन अवतार || Kaal Chakra ||



                          वामन अवतार
भगवान् के सभी अवतार सृष्टि संतुलन के लिए हुए हैं। धर्म की
स्थापना और अधर्म का निराकरण उनका प्रमुख उद्देश्य रहा है। इन सभी अवतारों की
लीलाएँ
, उनके क्रिया- कलाप, प्रतिपादन, उपदेश, निर्धारण सभी भिन्न- भिन्न हैं। किन्तु लक्ष्य एक ही हैं-
व्यक्ति की परिस्थिति और समाज की परिस्थिति में उत्कृष्टता का अभिवर्धन एवं
निकृष्टता का निवारण। भगवान की लीलाएं भक्तों के हृदय को आनंद की रसधारा में
निमग्र कर देती हैं।
दोस्तों आज हम बात करे
रहे हैं भगवान
विष्णु के पाँचवे और त्रेता युग के
पहले अवतार
वामन की। यह विष्णु के
पहले ऐसे अवतार थे जो मानव रूप में प्रकट हुए
और वो भी बौने ब्राह्मण के
रूप में।
आखिर ऐसा क्या कारण रहा होगा
जिससे भगवान को बौना जन्म लेना पड़ा
? इस विडियो मे हम वामन अवतार की सम्पूर्ण कथा का वर्णन करेंगे।
ये काल चक्र है...
प्रह्लाद के पुत्र विरोचन से महाबाहु बलि का जन्म हुआ।
दैत्यराज बलि धर्मज्ञों में श्रेष्ठ
, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, बलवान, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरि के प्रिय भक्त थे। उन्होंने इन्द्र सहित
सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्गणों को जीतकर तीनों लोकों को अपने अधीन कर लिया था। इस
प्रकार वे समस्त त्रिलोकी पर राज्य
करने लगे
थे। अमर-धाम असुर-राजधानी बन चुका था। शुक्राचार्य ने बलि का इन्द्रत्व स्थिर करने
के लिये अश्वमेध यज्ञ कराना प्रारम्भ किया। सौ अश्वमेध करके बलि नियम सम्मत इन्द्र
बन जायँगे। फिर उन्हें कोई भी हटा नहीं सकता है। राजा बलि के इस प्रयास से देवतागन
अत्यन्त त्रस्त हुए और इन्द्र आदि देवता ब्रह्माजी को आगे करके क्षीरसागर के तट पर
गये और सबने मिलकर देवाधिदेव भगवान नारायण की प्रार्थना की... देवताओं के स्तुति
करने पर श्रीहरि ने उन्हें दर्शन दिया तब भगवान विष्णु ने कहा-  कि मैं स्वयं देवमाता अदिति के गर्भ से उत्पन्न
होकर तुम्हें स्वर्ग का राज्य दिलाऊंगा।
कुछ समय पश्चात भगवान विष्णु
ने वामन अवतार लिया
, जब बलि महान
यज्ञ कर रहा था तब भगवान वामन बलि की यज्ञशाला में गए भगवान ने बलि के वंश की
प्रशंसा करते हुए प्रह्लाद जैसे भक्त तथा बलि के पिता विरोचन को ब्राह्म
ïण वत्सल बताते हुए उसे भी उस परम्परा का पालन करने को कहा।
वामन जी बोले:-
" महाराज! मुझे तीन पग
भूमि दे दीजिये
;
यह सुनकर राजा बलि ने प्रसन्न
होकर विधिपूर्वक भूमिदान का विचार किया। दैत्यराज को ऐसा करते देख उनके पुरोहित
शुक्राचार्य बोले:-" राजन् ! ये साक्षात् परमेश्वर विष्णु हैं। देवताओं की
प्रार्थना से यहाँ पधारे हैं और तुम्हें भर्म में डालकर सारी पृथ्वी हड़प लेना
चाहते हैं।अतः इन महात्मा को पृथ्वी का दान न देना। मेरे कहने से कोई और ही वस्तु
दे दो
,
भूमि न दो।"
यह सुन राजा बलि हंस पड़े और
गुरु से बोले:-" ब्रह्मन्! मैंने सारा पुण्य भगवान् वासुदेव की प्रसन्नता के
लिये किया है। अतः यदि स्वयं भगवान विष्णु ही यहाँ पधारे हैं
, तब तो आज मैं धन्य हो गया। उनके लिये तो आज यह परम सुखमय
जीवन तक दे डालूँ तो भी संकोच न होगा। राजा बलि ने दान का संकल्प कर दिया। विधिपूर्वक
भूमिदान का संकल्प दे
, नमस्कार
करके प्रसन्नता से कहा:-" ब्रह्मन्! आज आपको भूमिदान देकर मैं स्वयं को धन्य
एवं कृतकृत्य मानता हूँ। आप अपनी इच्छानुरूप इस पृथ्वी को ग्रहण कीजिये।"
तब श्रीवामनरूपधारी भगवान
विष्णु बोले:-
" राजन्! अब मैं
तुम्हारे सामने ही पृथ्वी को नापता हूँ।"
ऐसा कहकर परमेश्वर ने वामन
ब्रह्मचारी का रूप त्याग दिया और विराट् रूप धारण करके समस्त पर्वत
, समुद्र, द्वीप, देवता, असुर
और मनुष्यों सहित इस पचास कोटि योजन की पृथ्वी को एक ही पैर से नाप लिया। सनातन
भगवान् का वह पग सारी पृथ्वी को लाँघकर सौ योजन तक आगे बढ़ गया। तब वामन भगवान् ने
बलि को दिव्यचक्षु प्रदान किया और उन्हें अपने स्वरूप का दर्शन कराया। भगवान् के
विश्वरूप का दर्शन करके दैत्यराज के हर्ष की कोई सीमा रही। तब सर्वेश्वर विष्णु ने
अपने द्वितीय पग को ऊपर की ओर फैलाया। वह नक्षत्र
, ग्रह और देवलोक को लाँघता हुआ ब्रह्मलोक के अन्त तक पहुँच
गया।
तीसरा पग नापने के लिये कुछ
शेष ही नहीं रह गया था। तब भगवान वामन बोले:-"तृतीय पग कहाँ रखूँ
? दैत्यराज!
राजा बलि ने कहा :- इसे मेरे
मस्तक पर रख ले!
' बलि ने
मस्तक झुकाया और प्रभु ने वहाँ अपना चरण रखा। बलि के सिर पर पग रखने से वह सुतललोक
पहुंच गया। बाली की दानवीरता से प्रसन्न हो कर भगवान विष्णु ने उसे साल मे एक बार
पृथ्वी लोक अपनी प्रजा से मिलने की अनुमति दे दी।
भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की
द्वादशी को वामन द्वादशी या वामन जयंती के रुप में मनाया जाता है. धर्म ग्रंथों के
अनुसार इसी शुभ तिथि को श्रवण नक्षत्र के अभिजित मुहूर्त में श्री विष्णु के अन्य
रुप भगवान वामन का अवतार हुआ था. इस वर्ष वामन जयंती
, 21 सितंबर 2018 को
मनाई जाएगी.

शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणां तथा ।
ऊहापोहोऽर्थ विज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः॥

 भावार्थ :
शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, चिंतन, उहापोह, अर्थविज्ञान, और तत्त्वज्ञान ये बुद्धि के गुण हैं ।

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