Friday, 8 June 2018

सावित्री ने छिन लिया था यमराज से अपना पति || Kaal Chakra



                       सावित्री सत्यवान
कथा
प्राचीन काल से आज तक अनेक भारतीय नारी-रत्नों ने संसार में
कई उच्चतम आदर्शों की स्थापना की है और अपने सुकृत्यों एवं सेवाओं से नारी जाति के
नाम को उज्जवल किया है। भारतीय नारी प्रारंभ से ही पृथ्वी के समान क्षमाशील समुद्र
के समान गंभीर शशि के समान शीतल
, रवि के समान तेजस्वी तथा पर्वत के समान मानसिक रूप से उन्नत
रही है। यूं तो भारत में हजारों ऐसी महिलाएं हुई हैं जिनकी पतिव्रता पालन की मिसाल
दी जाती है
, लेकिन उनमें से भी कुछ ऐसी हैं जो इतिहास का अमिट हिस्सा बन
चुकी हैं।
इन्हीं मे से एक नारी हैं
सावित्री जिनकी पतिव्रता ऐसी थी जिसके प्रभाव के कारण इनके मृत पति भी जीवित हो
उठे थे। आइए सुनते हैं माता सावित्री की ये अद्भुत कहानी।
ये काल चक्र है...
दोस्तों इस कहानी का उल्लेख
सर्वप्रथम महाभारत के वन पर्व मे मिलता है। जब पांडव वनवास के दौरान इधर उधर विचरण
कर रहे थे उसी दौरान उनकी मुलाक़ात मार्कन्डेय ऋषि से हुई। धर्मराज युधिष्ठिर ने
मार्कण्डेय ऋषि से कहा
, "हे
ऋषिश्रेष्ठ! मुझे अपने कष्टों की चिन्ता नहीं है
, किन्तु इस द्रौपदी के कष्ट को देखकर अत्यन्त क्लेश होता है।
जितना कष्ट यह उठा रही है
, क्या और
किसी अन्य पतिव्रता नारी ने कभी उठाया है
?" तब मार्कण्डेय ऋषि बोले, "हे धर्मराज! तुम्हारे इस प्रश्न के उत्तर में मैं तुम्हें
पतिव्रता सावित्री की कथा सुनाता हूँ।
मद्रदेश के अश्वपतिनाम का एक बड़ा ही धार्मिक राजा था।
जिसकी पुत्री का नाम सावित्री था। सावित्री जब विवाह योग्य हो गई। तब महाराज उसके
विवाह के लिए बहुत चिंतित थे। एक दिन उन्होंने सावित्री को बुला कर कहा कि पुत्री!
तुम अत्यन्त विदुषी हो अतः अपने अनुरूप पति की खोज तुम स्वयं ही कर लो। पिता की
आज्ञा पाकर सावित्री एक वृद्ध तथा अत्यन्त बुद्धिमान मन्त्री को साथ लेकर पति की
खोज हेतु देश-विदेश के पर्यटन के लिये निकल पड़ी। जब वह अपना पर्यटन कर वापस अपने
घर लौटी तो उस समय सावित्री के पिता देवर्षि नारद के साथ भगवत्चर्चा कर रहे थे।
सावित्री ने दोनों को प्रणाम किया और कहा कि हे पिता! आपकी आज्ञानुसार मैं पति का
चुनाव करने के लिये अनेक देशों का पर्यटन कर वापस लौटी हूँ। शाल्व देश में
द्युमत्सेन नाम से विख्यात एक बड़े ही धर्मात्मा राजा थे। किन्तु बाद में दैववश वे
अन्धे हो गये। जब वे अन्धे हुये उस समय उनके पुत्र की बाल्यावस्था थी। द्युमत्सेन
के अनधत्व तथा उनके पुत्र के बाल्यपन का लाभ उठा कर उसके पड़ोसी राजा ने उनका
राज्य छीन लिया। तब से वे अपनी पत्नी एवं पुत्र सत्यवान के साथ वन में चले आये और
कठोर व्रतों का पालन करने लगे। उनके पुत्र सत्यवान अब युवा हो गये हैं
, वे सर्वथा मेरे
योग्य हैं इसलिये उन्हीं को मैंने पतिरूप में चुना है। "सावित्री की बातें
सुनकर देवर्षि नारद बोले कि हे राजन्! पति के रूप में सत्यवान का चुनाव करके
सावित्री ने बड़ी भूल की है। नारद जी के वचनों को सुनकर अश्ववपति चिन्तित होकर
बोले के हे देवर्षि! सत्यवान में ऐसे कौन से अवगुण हैं जो आप ऐसा कह रहे हैं
? इस पर नारद जी ने
कहा कि राजन्! सत्यवान तो वास्तव में सत्य का ही रूप है और समस्त गुणों का स्वामी
है। किन्तु वह अल्पायु है और उसकी आयु केवल एक वर्ष ही शेष रह गई है। उसके बाद वह
मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। "देवर्षि की बातें सुनकर राजा अश्वैपति ने
सावित्री से कहा कि पुत्री! तुम नारद जी के वचनों को सत्य मान कर किसी दूसरे उत्तम
गुणों वाले पुरुष को अपना पति के रूप में चुन लो। इस पर सावित्री बोली कि हे तात्!
भारतीय नारी अपने जीवनकाल में केवल एक ही बार पति का वरण करती है। अब चाहे जो भी
हो
, मैं किसी दूसरे को अपने पति के रूप में स्वीकार नहीं कर
सकती।
पुत्री के हठ के कारण पिता को
विवश होना पड़ा और सावित्री के द्वारा चुने हुए वर सत्यवान से धुमधाम और पूरे
विधि-विधान से विवाह करवा दिया गया। "विवाह के पश्चात् सावित्री अपने राजसी
वस्त्राभूषणों को त्यागकर तथा वल्कल धारण कर अपने पति एवं सास श्वीसुर के साथ वन
में रहने लगी। पति तथा सास श्विसुर की सेवा ही उसका धर्म बन गया। किन्तु
ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता जाता था
, सावित्री के मन का भय बढ़ता जाता था। अन्त्ततः वह दिन भी आ गया जिस दिन
सत्यवान की मृत्यु निश्चिनत थी। उस दिन सावित्री ने द‍ृढ़ निश्चनय कर लिया कि वह
आज अपने पति को एक भी पल अकेला नहीं छोड़ेगी। जब सत्यवान लकड़ी काटने हेतु कंधे पर
कुल्हाड़ी रखकर वन में जाने के लिये तैयार हुये तो सावित्री भी उसके साथ जाने के
लिये तैयार हो गई। सत्यवान ने उसे बहुत समझाया कि वन का मार्ग अत्यन्त दुर्गम है
और वहाँ जाने में तुम्हें बहुत कष्ट होगा किन्तु सावित्री अपने निश्चतय पर अडिग
रही और अपने सास श्वकसुर से आज्ञा लेकर सत्यवान के सा गहन वन में चली गई।
"लकड़ी काटने के लिये
सत्यवान एक वृक्ष पर जा चढ़े किन्तु थोड़ी ही देर में वे अस्वस्थ होकर वृक्ष से
उतर आये। उनकी अस्वस्थता और पीड़ा को ध्यान में रखकर सावित्री ने उन्हें वहीं
वृक्ष के नीचे उनके सिर को अपनी जंघा पर रख कर लिटा लिया। लेटने के बाद सत्यवान
अचेत हो गये। सावित्री समझ गई कि अब सत्यवान का अन्तिम समय आ गया है इसलिये वह
चुपचाप अश्रु बहाते हुये ईश्वर से प्रार्थना करने लगी। अकस्मात् सावित्री ने देखा
कि एक कान्तिमय
, कृष्णवर्ण, हृष्ट-पुष्ट, मुकुटधारी व्यक्तिय उसके सामने खड़ा
है। सावित्री ने उनसे पूछा कि हे देव! आप कौन हैं
? उन्होंने
उत्तर दिया कि सावित्री! मैं यमराज हूँ। और तुम्हारे पति को लेने आया हूँ। सावत्री
बोली हे प्रभो! सांसारिक प्राणियों को लेने के लिये तो आपके दूत आते हैं किन्तु
क्या कारण है कि आज आपको स्वयं आना पड़ा
? यमराज ने उत्तर
दिया कि देवि! सत्यवान धर्मात्मा तथा गुणों का समुद्र है
, मेरे
दूत उन्हें ले जाने के योग्य नहीं हैं। इसीलिये मुझे स्वयं आना पड़ा है। इतना कह
कर यमराज सत्यवान को ले कर चल पड़ते हैं। सावित्री अपने पति को ले जाते हुये देखकर
स्वयं भी यमराज के पीछे-पीछे चल पड़ी। कुछ दूर जाने के बाद जब यमराज ने सावित्री
को अपने पीछे आते देखा तो कहा कि हे सवित्री! तू मेरे पीछे मत आ क्योंकि तेरे पति
की आयु पूर्ण हो चुकी है और वह अब तुझे वापस नहीं मिल सकता। अच्छा हो कि तू लौट कर
अपने पति के मृत शरीर के अन्त्येष्टि की व्यवस्था कर। अब इस स्थान से आगे तू नहीं
जा सकती। सावित्री बोली कि हे प्रभो! भारतीय नारी होने के नाते पति का अनुगमन ही
तो मेरा धर्म है और मैं इस स्थान से आगे तो क्या आपके पीछे आपके लोक तक भी जा सकती
हूँ क्योंकि मेरे पातिव्रत धर्म के बल से मेरी गति कहीं भी रुकने वाली नहीं है।
"यमराज बोले कि सावित्री! मैं तेरे पातिव्रत धर्म से
अत्यन्त प्रसन्न हूँ। इसलिये तू सत्यवान के जीवन को छोड़कर जो चाहे वह वरदान मुझसे
माँग ले तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर के आंखे मांग ली। यमराज ने कहा तथास्तु
लेकिन वह फिर उनके पीछे चलने लगी। तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर मांगने को कहा
उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए।
यमराज ने वो भी दे दिया  उसके बाद तीसरा वर मांगा की मुझे पुत्र प्राप्ति हो यमराज ने आवेश मे तथास्तु कह
दिया। सावित्री यमराज के पीछे ही चलती रही। उसे अपने पीछे आता देख यमराज ने कहा कि
सावित्री तू मेरा कहना मान कर वापस चली जा और सत्यवान के मृत शरीर के अन्तिम
संस्कार की व्यवस्था कर। इस पर सावित्री बोली कि हे प्रभु! आपने अभी ही मुझे पुत्र
प्राप्ति का वरदान दिया है
, यदि मेरे
पति का अन्तिम संस्कार हो गया तो मेरे पुत्र कैसे होंगे
? सावित्री के वचनों को सुनकर यमराज आश्च्र्य में पड़ गये और
अन्त में उन्होंने कहा कि सावित्री तू अत्यन्त विदुषी और चतुर है। तूने अपने वचनों
से मुझे चक्कर में डाल दिया है। तू पतिव्रता है इसलिये जा
, मैं सत्यवान को जीवनदान देता हूँ। इतना कह कर यमराज वहाँ से
अन्तर्धान हो गये और सावित्री वापस सत्यवान के शरीर के पास लौट आई।

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