Tuesday, 29 August 2017

जब स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी ने रखा उसे नग्न न देखने की शर्त | kaal chakra

उर्वशी और पुरुरवा की प्रेम कथा



हिन्दू पौराणिक कथाओं मे बहुत सी प्रेरणादायी और
अद्भुत कहानियाँ मिलतीं हैं। महाभारत और रामायण जैसे ग्रन्थों मे ऐसी कई सारी
कहानियाँ मिलतीं हैं जो वास्तव मे आश्चर्यजनक हैं । ऐसी ही एक कहानी है जो महाभारत
काल मे घटित हुई थी जो प्यार
, जुनून,
ईर्ष्या और जुदाई से भरी हुई है । ये कहानी है धरती पर रहने वाले एक मनुष्य राजा
पुरुरवा और स्वर्ग मे रहने वाली एक अप्सरा उर्वशी की ।
ये काल चक्र है इस काल चक्र मे आप सबका अभिनंदन
करता हूँ आइए सुनते हैं ये अद्भुत प्रेम कहानी ।
चंद्रवंश के पहले राजा पुरुरवा जो बुध और इला के
पुत्र थे। राजा पुरुरवा एक बहुत ही पराक्रमी योद्धा थे। देवराज इंद्रा और असुरो के
बीच युद्ध के दौरान इंद्रा के आह्वान पे कई बार राजा पुरुरवा इंद्रा की मदद के लिए
गए । एक बार जब उर्वशी स्वर्ग मे इंद्रा के दरबार मे ऊब गईं थीं तो कुछ अलग करने
के लिए वो पृथ्वी पे उतार आयीं। उन्हे स्वर्ग के राजसी जीवन के बजाय पृथ्वी के सुख
दुख उतार चढ़ाओ भरा जीवन ज्यदा अच्छा लगा । जब वो पृथ्वी से वापिस स्वर्ग की तरफ
लौट रही थीं उसी समय एक असुर ने उन्हे पकड़ लिया। तभी राजा पुरुरवा ने उस असुर को
उर्वशी को पकड़ते हुए देख लिया । अगले ही पल राजा पुरुरवा ने अपने तलवार से उस असुर
का वध कर के उर्वशी को मुक्त कराया । इसी दौरान राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी का
शरीर एक दूसरे से स्पश्र्श हो गया
, पहली बार उर्वशी
को किसी नश्वर मनुष्य ने छुआ था इस स्पर्श ने उर्वशी का मन मोह लिया और उर्वशी की
सुंदरता देख राजा भी उर्वशी पे आकर्षित हो गए। परंतु उस समय उर्वशी को वापिस
स्वर्ग लौटना पड़ा। इंद्रा देव के आदेश पर ऋषि भारत ने एक नाटक का आयोजन किया जिसमे
उर्वशी देवी लक्ष्मी की भूमिका मे थीं और उन्हे अपने पति श्री हरी विष्णु का नाम
लेना था लेकिन वह पुरुरवा के ख्यालों मे खोई थी और भगवान विष्णु के नाम की जगह
पुरुरवा का नाम ले लिया। इसे ऋषि भरत क्रोधित हो गए और उर्वशी को श्राप देते हुए
कहा तुम एक नश्वर मनुष्य के प्रेम मे अपना सुध बुध खो बैठी हो इस लिए तुम्हें
पृथ्वी पे जा कर उसके साथ ही रहना होगा।
उर्वशी पृथ्वी पे आ गईं उन्हे स्वर्ग छोड़ने का दुख
था परंतु पुरुरवा को पाने का हर्ष भी था । उर्वशी ने पुरुरवा को अपने पति के रूप
मे सुविकर कर लिया पर उनके सामने एक शर्त राखी की तुम मुझे कभी नग्न अवशथा मे नहीं
देखोगे अगर ऐसा हुआ तो मई वापिस स्वर्ग लौट जाऊँगी । पुरुरवा ने उसकी शर्त मान ली।
और शर्त के अनुसार रात के अंधेरे मे ही पुरुरवा उर्वशी संभोग करते थे । दूसरी तरफ
इन दोनों के प्रेम को देख देवता ईर्ष्या से भर गए थे क्यूंकी उर्वशी स्वर्ग की
सबसे सुंदर अप्सरा थी और उसके बिना स्वर्ग सुना सा हो गया था । एक दिन देवताओं ने
एक साजिश रची
, रात के अंधरे संभोग के दौरान जब दोनों नग्न
अवस्था मे थे तभी देवताओं द्वारा आकाश मे बहुत ज़ोर की बिजली चमकी और वह कुछ समय के
लिए प्रकाश हो गया और पुरुरवा ने उर्वशी को नग्न अवस्था मे देख लिया जिससे उर्वशी
की शर्त टूट गई और उर्वशी को वापिस स्वर्ग जाना पड़ा।
और इस प्रकार एक सच्चे प्रेमी को अपनी प्रेमिका से
जुदा होना पड़ा ।      

जब स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी ने रखा उसे नग्न न
देखने की शर्त
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Wednesday, 23 August 2017

Ganesh chaturthi 2017 - क्या आप को पता है भगवान गणेश का वास्तविक मस्तक क...

        भगवान
गणेश का मस्तक




काल चक्र मे मै आप सब का अभिनंदन करता हूँ, ये तो हम सभी जानते हि है की भगवान गणेश को इंसान के शरीर और गज के सिर
वाले स्वरूप मे पुजा जाता है । आज इस विडियो मे हम ये जानेंगे की भगवान गणेश का
असल मस्तक कहाँ है
?
एक बार जब माता पार्वती मानसरोवर मे स्नान के लिए
गईं तब उन्होने गणेश जी को वहाँ देवरपाल के रूप मे खड़ा कर दिया और उन्हे ये आज्ञा
दे दिया की कोई भी अंदर न आने पाये ।
तभी वहाँ भगवान शिव आ गए और अंदर जाने लगे परंतु
गणेश जी ने उनसे अंदर न जाने का अनुरोध किया
, शिव जी ने भगवान
गणेश का अनुरोध सुविकर नहीं किया इसपर दोनों के बीच भयंकर युद्ध शुरू हो गया अंत
मे भगवान शिव ने अत्यधिक क्रोध मे आ कर अपने त्रिसुल के प्रहार से भगवान गणेश का
मस्तक काट दिया। जो चन्द्र लोक मे चला गया ।  
जब माता पार्वती को इस बात की जानकारी मिली तो वो
विलाप करने लगीं और भगवान शिव से रुष्ट हो गईं। तब भगवान शिव ने रुष्ट पार्वती को
मनाने के लिए कटे मस्तक के स्थान पर गजमुख या हाथी का मस्तक जोड़ा।
ऐसी
मान्यता है कि श्रीगणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है
, इसी आस्था से हम सभी संकट चतुर्थी तिथि के
दिन
चन्द्रदर्शन व
अर्घ्य देकर श्रीगणेश की उपासना
और भक्ति द्वारा संकटनाश और
 मंगलकामना करते हैं
आज का श्लोका ज्ञान :
सत्यं
माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा।
शान्ति:
पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा:
अर्थात : सत्य मेरी माता है, ज्ञान मेरा पिता है, धर्म मेरा भाई है, दया मेरी मित्र है, शांति मेरी पत्नी है, क्षमा मेरा पुत्र है। यह छः मेरे सम्बन्धी हैं॥

Monday, 21 August 2017

Ganesh chaturthi 2017- अगर आप भगवान गणेश के भक्त है तो आप को ये बात जरूर...

गणेशोत्सव भगवान गणेश के जन्मदिन के रूप मे मनाया
जाता है और यह 10 दिनो तक चलता है इस वर्ष यह त्योहार आने वाली 25 तारिक से शुरू
हो रहा है और 5 सेप्टेम्बर तक रहेगा । भगवान गणेश को मिठाई में मोदक का भोग अवश्य
लगाया जाता है।
 हिन्दू मान्यताओं  की माने तो कहा जाता है कि भगवान गणेश को मोदक
बहुत पसंद थे और इसी वजह से उन्हें मोदकप्रिय भी कहा जाता है।
 पूजा के दौरान एक प्लेट में मोदक के 21 टुकड़े
रखकर उन्हें भोग लगाए जाने का वधान है।




आइए दोस्तों सुनते हैं वो कथा जिससे हमे भगवान गणेश
को मोदक प्रिए होने का कारण पता चलता है ।
एक बार भगवान शिव माता पार्वती के साथ गणेश जी
अनुसूया के घर गए जो ऋषि अत्री की पत्नी थीं। इस बीच भगवान शिव और गणेश जी को काफी
भूख लगी हुई थी। अनुसूया तुरंत हि भोजन के प्रबंध मे लग गईं। जब भोजन पक गया तब
उन्होने भगवान शिव से कहा – भगवान आप थोड़ा इंतज़ार कीजिये पहले मै बाल गणेश को भोजन
अर्पण करना चाहती हूँ। इसपर भगवान शिव ने अनुसूया को इस बात की सुविकृति दे दी।
अनुसूया ने बाल गणेश को विभिन्न तरह के पकवान परोसे
 परंतु भगवान गणेश की भूख शांत होने का नाम
नहीं ले रही थी
, यह देख वहाँ मौजूद सभी लोग काफी हैरान थे ।
अनुसूया ने सोचा कि इस खाने से तो भगवान गणेश कि भूख शांत नहीं हो रही है शायद मीठा
खाने से उनका पेट भर जाए ।
अनुसूया ने उन्हे मिठाई का एक टुकड़ा दिया जिसको खाने
के बाद उन्होने ज़ोर से एक डकार लिया और फिर उनकी भूख शांत हो गई। दिलचस्प बात यह
थी कि जिस वक्त बाल गणेश ने डकार ली
, उसी समय भगवान
शिव ने भी डकार ली। जिसके बाद दोनों ने कहा कि अब उनका पेट भर गया है। बाद में
देवी पार्वती ने अनुसूया से उस मिठाई का नाम पूछा जो उन्होंने भगवान गणेश को परोसी
थी
, तब अनुसूया ने उन्हें मोदक के बारे में बताया। तभी से
भगवान गणेश को मोदक अत्यधिक प्रिए है।      

Thursday, 17 August 2017

भारतीय संस्कृति की सबसे अधभूत प्रेम कहनी | Love In Hindu Mythology | Kaa...

       देवयानी
की प्रेम कहानी




इस कथा का उल्लेख महाभारत के आदि पर्व के अंतर्गत
अध्याय 77 मे मिलता है। बात उस समय की है जब देवताओं और दानवों में त्रिलोक पे
अधिकार के लिए युद्ध चल रहा था। देवताओं के गुरु थे ऋषि बृहस्पति और असुरों ने ऋषि
शुक्राचर्य को अपना गुरु बनाया था।
जब युद्ध में देवताओं ने असुरों को मार दिया, तब ऋषि शुक्राचार्य  जिन्हें संजीवनी
विद्या का ज्ञान था उन्होंने
, उसका उपयोग कर युद्ध में मृत
असुरों को जीवित कर दिया। बृहस्पति को संजीवनी विद्या नहीं आती थी। इस समस्या के
समाधान के लिए देवता
, कच, जो की
बृहस्पति के पुत्र थे
, उनके पास गए और उनसे आग्रह किया कि आप शुक्राचार्य के पास जाकर उनसे संजीवनी विद्या सीख लीजिये
देवताओं की बात सुनकर कच शुक्राचार्य के जाते हैं और
उनसे कहा
महाराज! मैं महर्षि अङ्गिरा का पौत्र और देवगुरु
बृहस्पति का पुत्र कच हूँ। मैं आपकी शरण में रहकर
, आपकी सेवा
करना चाहता हूँ। आप कृपया मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लीजिय ।
 इस पर
शुक्राचार्य ने कहा
मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ वत्स । तुम बृहस्पति
के पुत्र हो
, और  तुम्हारा
सत्कार करना बृहस्पति के सत्कार करने के सामान है
इसके बाद कच ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए, वहीं रह कर, शुक्राचार्य की सेवा करने लगे। वो गुरु
शुक्राचार्य को तो प्रसन्न रखते हीं
, साथ में, गुरुपुत्री देवयानी को भी अपनी सेवा से प्रसन्न रखते।
कुछ समय पश्चात असुरों को कच की इस योजना का पता
चला तब उन्होने ने उसे मृत्यु देने की योजना बनाई
, एक दिन जब
कच गायों को चराने वन गया हुआ था वही पर असुरों ने उस पर हमला कर दिया और कच को
मार दिया ।
संध्या के समय जब गायें बिना कच के ही वापिस आती
हैं तब ऋषि शुक्राचार्य की पुत्री को किसी अनिष्ट की आशंका होती है वो अपने पिता
की पा जा कर बोलतीं हैं -
पिताजी। सूर्यास्त हो गया, देखिये किन्तु गायें बिना अपने रक्षक के हीं लौट आयीं। कहीं कच के साथ कुछ
अनिष्ठ तो नहीं हो गया!!
 शुक्राचार्य
ने संजीवनी विद्या का प्रयोग कर के कच को पुकारा
- आओ बेटा !!
इस तरह कच दुबारा जीवित होकर वापस शुक्राचार्य की
सेवा में उपस्थित हो गया। और देवयानी के पूछने पर उसने सारा वृतांत उसे सुना दिया
अब अगली बार असुरों ने कच को मारने की एक और योजना
बनाई
, और उन्होने कच को मार कर जला दिया और उस राख़ को जल मे मिलाकर ऋषि
शूकरचर्या को ही पीला दिया।
जब कच नहीं लौटा तो फिर देवयानी फिर शुक्राचार्य के
पास गयी और कहा
पिताजी कच फूल लेने गया था, मगर अब तक नहीं लौटा। कहीं वो फिर मर तो नहीं गया। शुक्राचार्य ने कहा
बेटी मैं क्या करूँ। ये असुर उसे बार बार मार देते
हैं!
देवयानी के हठ करने पर शुक्राचार्य ने पुनः संजीवनी
विद्या का प्रयोग कर उसे आवाज दी।
इस पर कच ने डरते-डरते पेट के अंदर से हीं धीमी
आवाज़ में अपनी स्थिति बतायी
शुक्राचार्य ने कच से कहा- तुम ये विद्या मुझसे सीख
कर मेरा पेट फाड़कर बाहर निकल आओ
, और, फिर
संजीवनी विद्या से तुम मुझे जीवित कर देना।
कच ने कहा….
मैं आपके पेट में रहा हूँ और अब आपके पुत्र के
सामान हूँ। निश्चित रूप से मैं आपसे कृतघ्नता नहीं करूँगा। जो वेदगामि गुरु का आदर
नहीं करता
, वो नरक का भागी होता है।
जीवित होने पर कच ने शुक्राचार्य को भी जीवित कर दिया और कई वर्षों तक उनकी सेवा
मे लिन रहा।
जब अपनी सेवा पूर्ण कर कच वहाँ से चलने लगे तब
देवयानी ने उनसे कहा मै तुमसे अत्यधिक प्रेम करती हूँ और मन ही मन तुम्हें अपना
पति मान चुकी हूँ अब तुम भी मुझे पत्नी रूप मेन सुविकर करो ।
इस पर कच ने कहा
तुम्हारे पिता मेरे गुरु हैं, वो मेरे पिता सामान हैं, हम दोनों उनके अंदर रह चुके
हैं
, मैं तुम्हारे साथ बहुत वात्सल्य के साथ गुरु के घर में
रहा हूँ
, तुम मेरी बहन के सामान हो।  द्विजोत्तम कच! तुम मेरे गुरु के पुत्र हो,
मेरे पिता के नहीं, अतः मेरे भाई नहीं लगते,'
यह सुनकर कच कहने लगे, 'उत्तम व्रत का आचरण
करने वाली सुंदरी! तुम मुझे ऐसा काम करने के लिए प्रेरित कर रही हो
, जो उचित नहीं है।
देवयानी ने कहा
मैंने तुमसे प्रेम निवेदन किया था, अमरता
का वह संजीवनी मंत्र जिससे मृत जी उठते हैं।  मैंने तुममें संजीवनी तलाशने की कोशिश की और
किंचित सफल भी हुई।  कच
, तुमने मेरी स्थिति का आकलन करने की कभी कोशिश नहीं की यदि तुम धर्म की
खातिर मेरा त्याग करते हो
, तो जाओ, तुम्हारी
संजीवनी विद्या कभी सफल नहीं होगी।
इस पर कच ने कहा
मैंने तुम्हे गुरुपुत्री होने के कारण स्वीकार नहीं
किया था
,
कोई दोष देखकर नहीं। तुम्हारी जो इच्छा हो श्राप दे दो, मगर, मैंने तो सिर्फ ऋषि धर्म का पालन किया है। मैं
श्राप के योग्य नहीं था
, फिर भी प्रेम के वश में होकर तुमने
मुझे श्राप दिया है
, जाओ अब तुम्हे कोई ब्राह्मण पुत्र
स्वीकार नहीं करेगा। मेरी विद्या भले सफल न हो
, पर जिसे मैं
सिखाऊंगा उसकी विद्या तो सफल होगी! इतना कहकर कच वापस स्वर्ग  आ गएँ।
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥
अर्थ- विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती
है. क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है
, जबकि विद्वान जहाँ-जहाँ भी जाता है….. वह हर जगह
सम्मान पाता है.

Tuesday, 15 August 2017

2017 Ganesh Chaturthi - ऐसे करें विघ्नहर्ता को गणेशोत्सव पर प्रसन्न व्र...







                                 श्री
गणेश
भगवान गणेश को हिन्दू धर्म मे प्रथम पुजनिए माना
जाता है । प्रत्येक शुभ कार्य से पूर्व सर्वप्रथम गणेश जी को पुजा जाता है। भगवान
गणेश की पुजा से भक्तों के सभी दुख दूर हो जाते हैं। उसे जीवन के भौतिक सुखों की प्राप्ति
होगी। पुत्र-पौत्रादि
, धन-ऐश्वर्य की कमी नहीं रहेगी।
चारों तरफ से मनुष्य की सुख-समृद्धि बढ़ेगी।
दोस्तों आइए सुनते भगवान गणेश से जुड़ी एक बहुत ही
रोचक कथा ।
एक बार देवतागन अपनी कई विपदाओं को लेकर भगवान शिव
के पास आए और भगवान शिव से मदद की पुकार लगाई। उस समय भगवान शिव के समीप उनके दोनो
पुत्र कार्तिकय और गणेश जी भी बैठे हुए थे। भगवान शिव ने अपने दोनों पुत्रों से
पूछा की तुममे से कोन देवताओं के कष्टों का निवारण कर सकता है इसपर दोनों ने ही ये
चुनौती सुविकर की । भगवान शिव ने उन दोनों की परीक्षा लेने की सोची और बोला की तुम
दोनों मे से जो भी पृथ्वी की सबसे पहले परिक्रमा कर के मेरे पास आएगा वही देवताओं
की मदद करने जाएगा।
भगवान शिव के मुख से यह वचन सुन कर क्रातिकेय अपने
वाहन मोर पर बैठ कर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकल जाते हैं।
 परंतु
गणेशजी सोच में पड़ गए कि वह चूहे के ऊपर चढ़कर सारी पृथ्वी की परिक्रमा करेंगे तो
इस कार्य में उन्हें बहुत समय लग जाएगा।
तभी उन्हे एक उपाय सुझा गणेश जी अपने स्थान से उठे
और अपने माता पिता की साथ बार परिक्रमा के आर वापिस अपने स्थान पर बैठ गए ।
जब प्ररिक्रमा कर के लौटने पर कार्तिकय स्वयं को
विजेता बताने लगे तब शिव जी ने गणेश जी से पृथ्वी की परिक्रमा न करने का कारण पूछा
तब गणेश जी ने कहा- माता पिता के चरणों मे ही समस्त
लोक है पिताजी !
यह सुनकर भगवान शिव ने गणेश जी को देवताओं का संकट
दूर करने की आज्ञा दी ।इस प्रकार भगवान शिव ने गणेशजी को आशीर्वाद दिया कि चतुर्थी
के दिन जो तुम्हारा पूजन करेगा और रात्रि में चंद्रमा को अर्घ्य देगा उसके तीनों
ताप यानी दैहिक ताप
, दैविक ताप तथा भौतिक ताप दूर
होंगे।
 


  

Saturday, 12 August 2017

जन्माष्टमी में क्यों पूजा जाता है गोवर्धन पर्वत | Story of govardhan par...



त्रेता युग से ही शुरू हो गया थी भगवान श्री कृष्ण के जन्म की कहानी ये तो हम सभी जानते ही है भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण दोनों नारायण श्री हरी विष्णु के ही

अवतार  है । आज हम आपको भगवान श्री कृष्ण जनम की सबसे पहले भविष्य वाणी किसने और कहा की थी ये बताते है । इस विडियो को पूरा जरूर सुने अंत मे हम आपको 
कृष्ण जनमशटमी की पूजा का विसेस फल कैसे प्रपात हो उसकी विधि बताएँगे । हम सबको को पता है जब भगवान श्री राम 
लंका पहुँचने के लिए सुमुद्र पर सेतु का निर्माण करने लगे थे । उस समय सेतु निर्माण के लिए वानर सेना सभी दसो दिशोंओ से पत्थरो को ला रही थी 
इसी निर्माण के लिए हिमालय पर्वत से भी पत्थरो को लाया जा रहा था । जब एक वानर टुकड़ी पत्थरो को लेकर हिमालय से मथुरा तक पहुँची तभी उनको संदेश आया 
की सेतु निर्माण के लिए पत्थरो की आपूर्ति पूर्ण हो चुकीं है तब मथुरा मे इखट्टे हुये वानरो ने सोचा क्यू ना इन पथरो की यही रख दिया जाये 
जैसे ही वो इन पथरो को रखकर चलने लगे तभी इन पथरो से आवाज आई की भगवान राम एसी हमसे क्या गलती हो गयी जो आप हमहे यही छोड़ कर 
जा रहे हो । हम भी इस महान कार्य का हिस्सा बनना चाहते है । तभी वो भगवान श्री राम उनको ले जाने के लिए याचना करने लगे 
तभी भगवान श्री राम आकाश वाणी के रूप मे उनकी याचना को स्वीकार करते है । तथा उनको वचन देते है आने वाले द्वापर युग मे मैं कृष्ण के रूप मे जनम लूँगा 
और अपना पूरा बलाय काल आपकी छाव मे वायतित करूंगा । और भगवान राम सभी पथरो को एक विशालकाय पर्वत के रूप मे इककटा कर देते है
जो आगे चल कर गोवर्धन पर्वत के रूप मे जाना जाता है । कहा जाता है ये पर्वत इतना विशाल था की इसकी छाया मथुरा के कंस के महल तक जाती थी । 
आगे चल कर जब दवापर युग मे भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुया तब भगवान श्री कृष्ण और गोवर्धन पर्वत की अनेकों लीला हमने देखि । 
भगवान श्री कृष्ण बाल्यकाल से ही गोवर्धन पर्वत पर अपनी लीला करते रहते थे । भगवान श्री कृष्ण ने इनको गिरिराज का नाम दिया 
इसी कारण गोवर्धन पर्वत को भगवान श्री कृष्ण के रूप मे ही पूजा जाता है । तथा मे आपको यहा एक महतवपूर्ण तथ बताना चाहता हूँ भगवान श्री कृष्ण 
जनमस्तमी के दिन आप घर पर अपने पुजा स्थल पर एक दीपक जो शुद्ध घी का हो तथा जिसके अंदर चार जोत हो जो चारो दिसाओ की और प्रवजलित हो । और दीपक को 
प्रवजलित करते समय गोवर्धन पर्वत गिरिराज जी महाराज का ध्यान करे । एसा करने से श्री कृष्ण जनमस्तमी के दिन आपको भगवान श्री कृष्ण की 
विसेस कृपया होगी ।

Friday, 11 August 2017

कृष्ण जन्माष्टमी 14 Aug 2017 : जानें, व्रत एवं पूजा का शुभ मुहूर्त Kaal...





ये काल चक्र है इस काल चक्र मे आज हम आपको जन्माष्टमी व्रत की तिथि और पूजन
विधि बताएँगे 

            

श्री कृष्ण, 


भगवान विष्णु के
अकेले ऐसे अवतार हैं जिनके जीवन के हर पड़ाव मे अलग अलग रंग दिखाई देते हैं। कभी
उन्होने बाल रूप मे भक्तों का दिल मोह लिया तो कभी महाभारत में गीता के उपदेश से
कर्तव्यनिष्ठा का जो पाठ भगवान श्री कृष्ण ने पढ़ाया
, आज भी
उसका अध्ययन करने पर हर बार नये अर्थ निकल कर सामने आते हैं । भगवान श्री कृष्ण के
जन्म का उत्सव ही हम सब जन्माष्टमी के रूप मे मनाते हैं।
श्री कृष्ण का जन्म का भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष
की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में मध्यरात्रि में हुआ था। इस वर्ष यह त्योहार
स्मार्त संप्रदाय के अनुसार 14 अगस्त को मनाई जाएगी तो वहीं वैष्णव संप्रदाय के
अनुसार 15 अगस्त को जन्माष्टमी का त्योहार मनाया जाएगा।
आइए जानते हैं इस बहुत ही पवित्र व्रत की सही पूजन विधि
क्या है
?
कृष्ण जन्माष्टमी को पूरे दिन भक्तों को उपवास रखना
होता है। ऐसे में जरूरी है कि आप कुछ खास बातों का ध्यान रखें। जैसे आपकी सेहत के
लिए जरूरी है कि एक दिन पहले खूब लि‍क्व‍िड लें और जन्माष्टमी से पिछली रात को
हल्का भोजन करें। प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर हमे सूर्य
, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, भूमि, आकाश, खचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर बैठें।
इसके बाद आपको  हाथ में जल लेकर संकल्प करना
है । अब मध्याह्न के समय देवकीजी के लिए प्रसूति-गृह  का निर्माण करें। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की
मूर्ति या चित्र स्थापित करें। ध्यान रखें इस दिन भगवान कृष्ण के बल स्वरूप की
मूर्ति या चित्र की स्थापना करना शुभ माना जाता है। जन्माष्टमी के दिन सभी मंदिर
रात बारह बजे तक खुले होते हैं। बारह बजे के बाद कृष्ण जन्म होता है और इसी के साथ
सब भक्त चरणामृत लेकर अपना व्रत खोलना होता है ।
जन्माष्टमी व्रत तिथि व शुभ मुहूर्त
जन्माष्टमी
व्रत तिथि व शुभ मुहूर्त
जन्माष्टमी
व्रत तिथि - 14 अगस्त 2017
निशिथ
पूजा
00:03
से 00:47 (15 अगस्त 2017)
पारण17:39
(15 अगस्त 2017) के बाद
श्रीकृष्ण
जन्माष्टमी के इस शुभावसर पर
काल चक्र की तरफ से बहुत-बहुत शुभकामनाएं।


आज का श्लोक ज्ञान :
यदा
यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय
साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय
सम्भवामि युगे युगे ॥
जब जब
धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है तबतब ही मैं अपने आपको साकार रूप से प्रकट
करता हूँ।
साधु
पुरुषों का उद्धार करने के लिए
, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से
स्थापना करने के लिए मैं
हर युग में प्रकट होता हूँ।


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Watch Full Video Here - Krishna  Janmashtami14 Aug 2017 



गज की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने लिया धरती पर चौदहवीं बार अवतार |







                          ग्राह -- गजराज

हमारे धर्म ग्रन्थों मेँ 

भगवान विष्णु को पालनहार
का दर्जा दिया गया है। जैसे एक माँ के लिये उसके सारे बच्चे एक से हैं वैसे ही
प्रभु विष्णु के लिये भी हर प्राणी
, जीव, जंतु, अश्व, गंधर्व, किन्नर एक से है। आज हम आपको गज और ग्राह की वो कथा सुनाते है जिनके लिए
स्वयं भगवान विष्णु को धरती पर जन्म लेना पड़ा था ।


पुराणों
के अनुसार भगवान विष्णु के दो भक्त जय और विजय
श्राप
पाकर
गज और ग्राह के
रूप में धरती पर उत्पन्न हुए थे। गंडक नदी में एक दिन कोनहारा के तट पर जब गज पानी
पीने आया था तो ग्राह ने उसे पकड़ लिया
, और उन
दोनों के बीच युद्ध आरंभ होगया
, जब गज ग्राह से छुटकारा पाने
मे असमर्थ हो गया
तब गज ने बड़े ही मार्मिक भाव से भगवान विष्णु को याद किया।
गज
की प्रार्थना सुनकर कार्तिक पूर्णिमा के दिन विष्णु भगवान ने
चौदहवी
बार इस धरती पर
अवतार
लिया और अपने
सुदर्शन
चक्र
से गजराज को ग्राह से मुक्त किया और उसकी की जान बचाई।
बिहार राज्य के सोनुपुर मे हर साल कार्तिक पूर्णिमा से एक दिन
पहले शुरू
होता है एक पशु मेला, इस मेले में लाखों देसी और विदेशी
पर्यटक पहुंचते हैं. यह मेला आज एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के रूप में विख्यात
है।
मान्यता है की यही पे कोंहर घाट पे ग्राह और गज के बीच युद्ध
हुआ था ।
श्लोका :
•        अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां
तु वसुधैव कुटुंबकम्
अर्थात ;
यह मेरा है ,यह उसका है ;
ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार
जैसी होती है
|

See The Full Video Here - भगवान विष्णु 

Tuesday, 1 August 2017

जानिए क्यूँ सिर्फ पुष्कर में है ब्रम्हा जी का मंदिर | Story of Brahma ji...

जानिए क्यूँ सिर्फ पुष्कर में है ब्रम्हा जी का मंदिर | Story of Brahma ji...

      पुष्कर मंदिर कि कहानी
इस सृष्टि कि रचना
परमपिता ब्रह्मा जी ने की है यह तो हम सभी जानते ही हैं । परंतु क्या आपको पता है
एक बार ब्रह्मा जी से भी
भारी भूल हो गई थी एक ऐसी
भूल जिससे उनकी पत्नी न सिर्फ उनसे रूठ गईं बल्कि एक ऐसा श्राप दे दिया जिससे आज सृष्टि
की रचना करने वाले की पुजा सिर्फ पुस्कर मे ही होती है । आइये जानते हैं ऐसा क्या
हुआ था जिससे ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री उनसे इस कदर नाराज जो गईं थीं ।
पद्मपूराण के अनुसार जब एक बार धरती पर व्रजनाश
नामक राक्षस का उत्पात बहुत बढ़ गया था और तब उसके बढ़ते अत्याचारों से तंग आकार
ब्रह्मा जी ने उसका वध कर दिया था किन्तु वध करते समय ब्रह्मा जी के हाथ से तीन
पुष्प भूमि पर गिर गए जिससे तीन झीलों की उत्पत्ति हो गई। इसी घटना के बाद इस स्थल
का नाम पुस्कर पड़ा।
ब्रह्मा जी ने संसार की भलाई के लिए इस स्थल पर एक
यज्ञ करने का फैसला किया
, उनके इस यज्ञ मे पत्नी का बैठना
जरूरी था लेकिन उनकी पत्नी देवी सावित्री को किसी कारण वस वहाँ पहुँच ने मे विलंभ
हो गया इधर पुजा का शुभ मुहूर्त बीतता जा रहा था सभी देवी देवता वह पहुँचते गए
परंतु देवी सावित्री का कोई आता पता नहीं था इसपर ब्रह्मा जी ने गुर्जर समुदाय की
एक कन्या
'गायत्री' से विवाह कर इस
यज्ञ को शुरू किया। उसी दौरान देवी सावित्री वहां पहुंची और ब्रह्मा जी  के बगल में दूसरी कन्या को बैठा देख क्रोधित हो
गईं। उन्होने ब्रह्म जी को ये श्राप दे दिया की देवता होने के बावजूद उनकी कभी
पुजा नहीं की जाएगी । वहाँ आए सभी देवताओं ने उनसे विनती की कि अपना श्राप वापिस
ले लीजिये देवी । पर वो नहीं मनी । कुछ समय पश्चात जब उनका क्रोध कुछ शांत हुआ तब
उन्होने कहा कि इस संसार मे पुस्कर ही एक ऐसा स्थान माना जाएगा जहां ब्रह्मा जी कि
पुजा होगी इसके अलावा जो कोई भी ब्रह्मा जी का मंदिर बनाने कि कोशिश करेगा उसका
विनाश हो जाएगा ।
पुष्कर
में जितनी अहमियत ब्रह्मा की है
, उतनी
ही
देवी
सावित्री की भी है. सावित्री को सौभाग्य की देवी माना जाता है।  यह मान्यता है कि यहां पूजा करने से सुहाग की
लंबी उम्र होती है। यही वजह है कि महिलाएं यहां आकर प्रसाद के तौर पर मेहंदी
, बिंदी और चूड़ियां चढ़ाती हैं और देवी
सावित्री से पति की लंबी उम्र कमना
करतीं
हैं।
आज का श्लोका ज्ञान :
क्रोधाद्भवति
संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्
बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति


अर्थात : क्रोध से मूढ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में
भ्रम हो जाने से बुध्दि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुध्दि का नाश हो
जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है। 

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