Thursday, 17 August 2017

भारतीय संस्कृति की सबसे अधभूत प्रेम कहनी | Love In Hindu Mythology | Kaa...

       देवयानी
की प्रेम कहानी




इस कथा का उल्लेख महाभारत के आदि पर्व के अंतर्गत
अध्याय 77 मे मिलता है। बात उस समय की है जब देवताओं और दानवों में त्रिलोक पे
अधिकार के लिए युद्ध चल रहा था। देवताओं के गुरु थे ऋषि बृहस्पति और असुरों ने ऋषि
शुक्राचर्य को अपना गुरु बनाया था।
जब युद्ध में देवताओं ने असुरों को मार दिया, तब ऋषि शुक्राचार्य  जिन्हें संजीवनी
विद्या का ज्ञान था उन्होंने
, उसका उपयोग कर युद्ध में मृत
असुरों को जीवित कर दिया। बृहस्पति को संजीवनी विद्या नहीं आती थी। इस समस्या के
समाधान के लिए देवता
, कच, जो की
बृहस्पति के पुत्र थे
, उनके पास गए और उनसे आग्रह किया कि आप शुक्राचार्य के पास जाकर उनसे संजीवनी विद्या सीख लीजिये
देवताओं की बात सुनकर कच शुक्राचार्य के जाते हैं और
उनसे कहा
महाराज! मैं महर्षि अङ्गिरा का पौत्र और देवगुरु
बृहस्पति का पुत्र कच हूँ। मैं आपकी शरण में रहकर
, आपकी सेवा
करना चाहता हूँ। आप कृपया मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लीजिय ।
 इस पर
शुक्राचार्य ने कहा
मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ वत्स । तुम बृहस्पति
के पुत्र हो
, और  तुम्हारा
सत्कार करना बृहस्पति के सत्कार करने के सामान है
इसके बाद कच ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए, वहीं रह कर, शुक्राचार्य की सेवा करने लगे। वो गुरु
शुक्राचार्य को तो प्रसन्न रखते हीं
, साथ में, गुरुपुत्री देवयानी को भी अपनी सेवा से प्रसन्न रखते।
कुछ समय पश्चात असुरों को कच की इस योजना का पता
चला तब उन्होने ने उसे मृत्यु देने की योजना बनाई
, एक दिन जब
कच गायों को चराने वन गया हुआ था वही पर असुरों ने उस पर हमला कर दिया और कच को
मार दिया ।
संध्या के समय जब गायें बिना कच के ही वापिस आती
हैं तब ऋषि शुक्राचार्य की पुत्री को किसी अनिष्ट की आशंका होती है वो अपने पिता
की पा जा कर बोलतीं हैं -
पिताजी। सूर्यास्त हो गया, देखिये किन्तु गायें बिना अपने रक्षक के हीं लौट आयीं। कहीं कच के साथ कुछ
अनिष्ठ तो नहीं हो गया!!
 शुक्राचार्य
ने संजीवनी विद्या का प्रयोग कर के कच को पुकारा
- आओ बेटा !!
इस तरह कच दुबारा जीवित होकर वापस शुक्राचार्य की
सेवा में उपस्थित हो गया। और देवयानी के पूछने पर उसने सारा वृतांत उसे सुना दिया
अब अगली बार असुरों ने कच को मारने की एक और योजना
बनाई
, और उन्होने कच को मार कर जला दिया और उस राख़ को जल मे मिलाकर ऋषि
शूकरचर्या को ही पीला दिया।
जब कच नहीं लौटा तो फिर देवयानी फिर शुक्राचार्य के
पास गयी और कहा
पिताजी कच फूल लेने गया था, मगर अब तक नहीं लौटा। कहीं वो फिर मर तो नहीं गया। शुक्राचार्य ने कहा
बेटी मैं क्या करूँ। ये असुर उसे बार बार मार देते
हैं!
देवयानी के हठ करने पर शुक्राचार्य ने पुनः संजीवनी
विद्या का प्रयोग कर उसे आवाज दी।
इस पर कच ने डरते-डरते पेट के अंदर से हीं धीमी
आवाज़ में अपनी स्थिति बतायी
शुक्राचार्य ने कच से कहा- तुम ये विद्या मुझसे सीख
कर मेरा पेट फाड़कर बाहर निकल आओ
, और, फिर
संजीवनी विद्या से तुम मुझे जीवित कर देना।
कच ने कहा….
मैं आपके पेट में रहा हूँ और अब आपके पुत्र के
सामान हूँ। निश्चित रूप से मैं आपसे कृतघ्नता नहीं करूँगा। जो वेदगामि गुरु का आदर
नहीं करता
, वो नरक का भागी होता है।
जीवित होने पर कच ने शुक्राचार्य को भी जीवित कर दिया और कई वर्षों तक उनकी सेवा
मे लिन रहा।
जब अपनी सेवा पूर्ण कर कच वहाँ से चलने लगे तब
देवयानी ने उनसे कहा मै तुमसे अत्यधिक प्रेम करती हूँ और मन ही मन तुम्हें अपना
पति मान चुकी हूँ अब तुम भी मुझे पत्नी रूप मेन सुविकर करो ।
इस पर कच ने कहा
तुम्हारे पिता मेरे गुरु हैं, वो मेरे पिता सामान हैं, हम दोनों उनके अंदर रह चुके
हैं
, मैं तुम्हारे साथ बहुत वात्सल्य के साथ गुरु के घर में
रहा हूँ
, तुम मेरी बहन के सामान हो।  द्विजोत्तम कच! तुम मेरे गुरु के पुत्र हो,
मेरे पिता के नहीं, अतः मेरे भाई नहीं लगते,'
यह सुनकर कच कहने लगे, 'उत्तम व्रत का आचरण
करने वाली सुंदरी! तुम मुझे ऐसा काम करने के लिए प्रेरित कर रही हो
, जो उचित नहीं है।
देवयानी ने कहा
मैंने तुमसे प्रेम निवेदन किया था, अमरता
का वह संजीवनी मंत्र जिससे मृत जी उठते हैं।  मैंने तुममें संजीवनी तलाशने की कोशिश की और
किंचित सफल भी हुई।  कच
, तुमने मेरी स्थिति का आकलन करने की कभी कोशिश नहीं की यदि तुम धर्म की
खातिर मेरा त्याग करते हो
, तो जाओ, तुम्हारी
संजीवनी विद्या कभी सफल नहीं होगी।
इस पर कच ने कहा
मैंने तुम्हे गुरुपुत्री होने के कारण स्वीकार नहीं
किया था
,
कोई दोष देखकर नहीं। तुम्हारी जो इच्छा हो श्राप दे दो, मगर, मैंने तो सिर्फ ऋषि धर्म का पालन किया है। मैं
श्राप के योग्य नहीं था
, फिर भी प्रेम के वश में होकर तुमने
मुझे श्राप दिया है
, जाओ अब तुम्हे कोई ब्राह्मण पुत्र
स्वीकार नहीं करेगा। मेरी विद्या भले सफल न हो
, पर जिसे मैं
सिखाऊंगा उसकी विद्या तो सफल होगी! इतना कहकर कच वापस स्वर्ग  आ गएँ।
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥
अर्थ- विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती
है. क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है
, जबकि विद्वान जहाँ-जहाँ भी जाता है….. वह हर जगह
सम्मान पाता है.

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